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(ल०-जडाहितयोगः नापचारिक:-) नाचेतनाहितयोग उपचरितः, पुनरागमकर्मकत्वेन ।
(पं०-) नन्वेवं कथमचेतनेष्वहितयोगः, तस्साध्यस्य क्रियाफलस्यापायस्य तेषु कदाचिदप्यभावात् । यदि परमुपचरित; तस्य चोपचरित्वे हितयोगोऽपि तेषु तादृश एव प्रसजति । न च स्तवे तादृशस्य प्रयोगः, सद्भूतार्थविषयत्वात् स्तवस्य । ततः कथं सर्वलोकहिता भगवन्त इत्याशङ्क्याह 'न' = नैव, 'अचेतनाहितयोगः'अचेतनेषु = धर्मास्तिकायादिषु, अहितयोगः =अपायहेतुर्व्यापारो मिथ्यादर्शनादिः, 'उपचरितः' = अध्यारोपितोऽग्निर्माणवक' इत्यादाविवाग्नित्वम् । अत्र हेतुमाह 'पुनरागमकर्मकत्वेन,'पुनरागमेन = प्रत्यावृत्त्य कर्त्तर्येव क्रियाफलभूतापायभाजनीकरणेन, कर्म यस्य स पुनरागमकर्मको अचेतनाहितयोगः, तस्य भावस्तत्त्वं, तेन । उपचरितोऽहितभावो न मुख्यभावकार्यकारी माणवकाग्नित्ववत् । अचेतनाहितयोगस्तु प्रत्यावृत्त्य स्वकर्तर्येव क्रियाफलमपायमुपरचयन्, परवधाय दुःशिक्षितस्य शस्त्रव्यापार इव तमेव घ्नन्, कथमुपचरितः स्यात् ?
(ल०-) सचेतनस्यापि एवंविधस्यैव नायमितिदर्शनार्थः ।
(पं०-) एवं तर्हि सचेतनेष्वप्यहितयोगः पुनरागमकर्मक एव प्राप्त इति परवचनावकाशमाशङ्क्याह 'सचेतनस्यापि' = जीवास्तिकायस्य इत्यर्थः, 'अहितयोग' इति गम्यते, अचेतनस्य त्वस्त्येवेति 'अपि' शब्दार्थः । एवंविधस्यैव' = अचेतनसमस्यैव कियाफलभूतेनापायेन रहितस्यैव इत्यर्थः, 'न' = नैव, 'अयं' = प्रकृतोऽचेतनाहितयोगः, इति' = एतस्यपूर्वोक्तस्यार्थस्य, 'दर्शनार्थः' ख्यापक इति भावः, अहितयोगात् सचेतने कस्मिंश्चित् क्रियाफलस्यापायस्यापि भावात्।
जड संबन्धी विपरीतदर्शनादि कर्ता में अहितप्रापक है :
उ०-प्रश्न ठीक है । परन्तु हम यहाँ हितयोग या अहितयोग की वस्तु को औपचारिक मानते नहीं है, धर्मास्तिकायादि जड़ पदार्थो के बारे में प्रवर्तित अ-यथार्थदर्शन, मिथ्या-प्ररुपणा इत्यादि की क्रिया जो अहितयोग कराने वाली क्रिया है वह उपचार से नहीं परन्तु मुख्यतः अर्थात् सचमुच अहित के योग कराने वाली क्रिया है। विशेष यह है कि जड़ सम्बन्धी ऐसी क्रिया से अलबत्त जड को अहित नहीं होता है फिर भी क्रिया का फलभूत अहित-परिणाम कर्म में जाने के बदले परावर्तित होकर कर्ता को अपना भाजन बनाता है, अर्थात् अहितयोग उस कर्मभूत जड में नहीं, किन्तु विपरीत उपदेशादि के कर्ता जीव में होता है। तो अचेतन के अहित योग की क्रिया कर्ता में आ कर फलदायी होने से अहितभाव औपचारिक नहीं परंतु मुख्य हुआ। यदि औपचारिक होता तो मुख्य रुप से कार्य नहीं कर सकता । दृष्टान्त से 'यह माणवक नामक आदमी तो अंगार है' इस कथन में औपचारिक ढंग से अंगारपन का प्रतिपादन है क्यों कि वह अग्नि के मुख्य कार्य को करता नहीं है। परंतु यहाँ तो मुख्य रुप से अहित का कार्य होता है; अतः औपचारिक नहीं कहा जा सकता। विशेष इतना कि अहित कर्म को नहीं, कर्ता को होता है। जैसे कि शस्त्र चलाने वालेने यदि उलटी शिक्षा पायी हो तब वह शस्त्र-प्रयोग तो प्रतिव्यक्ति के वध के लिए करेगा, किन्तु असल में तो वह अपना ही वध कर बैठेगा; तब भी इस शस्त्र-प्रयोग को औपचारिक नहीं कहा जाता है किन्तु 'सचमुच अमुकने अमुक के प्रति शस्त्र चलाया' ऐसा ही कहा जाता है। वैसे यहाँ भी अचेतन संबन्धी अहित-योग परावर्तित हो कर जब कर्ता में सचमुच आता है तब वह अहितव्यापार औपचारिक कैसे कहा जाए? यहां प्रश्न हो सकता है कि
प्र०- यदि जड़ सम्बन्धी की गई मिथ्याबोधादि क्रिया उस के कर्मभूत जड़ के बदले कर्तृभूत जीव में
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