SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 143
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ (ल०-कङ्कटुकदृष्टान्तेन प्रयोगः-) कर्तृव्यापारापेक्षमेव तत्र कर्मत्वं, न पुनः स्वविकारापेक्षं, कङ्कटुकपक्तावित्थमपि दर्शनादिति लोकहिताः ॥ १२ ॥ (पं-) ननु यद्यचेतनेषु क्रियाफलमपायो न समस्ति, कथं तदालम्बनप्रवृत्ताहितायोगाक्षिप्तं तेषां कर्मत्वमित्याह 'कर्तृव्यापारापेक्षमेव' = मिथ्यादर्शनादिक्रियाकृतमेव, 'तत्र' = अचेतनेषु, 'कर्मत्वम्' अवधारणफलमाह 'न पुनः स्वविकारापेक्षं' = न स्वगतापायापेक्षम् । ननु कथमित्थं कर्मभाव इत्याशङ्क्याह 'कङ्कटुकपक्तावित्थमपि दर्शनादिति, कङ्कटुकानां = पाकानर्हाणां मुद्गादीनां, 'पक्तौ = पचने, इत्थमपि = स्वविकाराभावेऽपि, 'दर्शनात्' = कर्मत्वस्य, 'कङ्कटुकान् पचती'ति प्रयोगप्रामाण्यादिति । एवं चाचेतनेषु हितयोगोऽपि मुख्य एव कर्तृव्यापारापेक्षयेति न तत्कारणिकत्वेन स्तवविरोध इति। अहित करने वाली हो तो जीव सम्बन्धी भी की गई मिथ्याबोधादि क्रिया कर्म में नहीं, परन्तु कर्ता में ही मुख्यत: अहित योग करे ऐसी आपत्ति क्यों नहीं ? उ०- ऐसा एकान्त नहीं है। बेशक जिस जीव संबन्धी, जैसे कि मोक्ष के जीव के सम्बन्धी, मिथ्याबोधादि की क्रिया की गई, अर्थात् किसीने ऐसा मिथ्या मान लिया कि मुक्त जीव अणु है, वगैरह, और वैसी प्ररुपणा भी की, तो वह क्रिया उस मुक्त जीव को साक्षात् अहित नहीं करती है, वहाँ वह जीव तो अहित योग रूपी फल पाने के लिए जड़ के समान ही होता है; अर्थात् मिथ्याबोधादि क्रिया का अहित-योग रूपी फल जैसे विषयभूत जड़ में नहीं, उसी तरह से उस मुक्त जीव में भी नहीं। अतः ऐसे ही जीव को, अचेतन-अहितयोग की तरह, साक्षात् अहितयोग नहीं, फिर भी पूर्वोक्त जो वस्तु कि मिथ्यादर्शनादि क्रिया का अहित योग स्वरूप फल परावर्तन हो कर कर्ता में होता है, इसलिए यह सूचक है कि वह क्रिया औपचारिक नहीं है। फिर कहीं अहित योग के पात्र बन सकने वाले जीव के सम्बन्धी मिथ्याबोधादि प्रवृत्ति तो उस प्रवृत्तिके कर्ता के अलावा उस पात्र में भी अहित-योग करता है और वहाँ अहितयोग करने का मुख्य प्रयोग उस रीति से होता है। कर्मत्व क्या फलाधायकत्वको कि कर्तृव्यापार को सापेक्ष ? : प्र०- तो फिर क्रिया का फल अहित जब खुद जड़ में नहीं आता है, तो वह जड़ वस्तु क्रिया का कर्म कैसे बनती है ? कर्म तो उसे ही कहा जा सकता है कि जिस में किया का फल बैठता है, जैसे कि बढई हवा को छीलता है, ऐसा नहीं कहा जा सकता; परन्तु लकड़ी को छीलता है इस प्रकार बोला जाता है। क्यों कि बढ़ई लकड़ी छोलता है, इस वाक्य में छीलना क्रिया का फल खरोंच लकड़ी में आता है; इसीलिए वाक्य में लकड़ी को कर्म कहा गया है। इस प्रकार प्रस्तुत में जड़ को विषय बनाकर इसके मिथ्याबोधादि क्रिया में प्रवर्तित होने से अहित योग रूप फल यदि जड़ में होता हो तो उसके हिसाब से जड़ में कर्मत्व आ सके न ? उ०-नहीं, ऐसा कोई नियम नहीं है, अपने में फल न बैठता हो तो भी वह कर्तृक्रिया की अपेक्षासे ही, न कि अपने में कुछ विकार-परावर्तन की अपेक्षासे, कर्म के रूप में प्रयुक्त होता है। जैसे कि प्रसंग पर कहा जाता है कि वह अच्छे मूंग नहीं पकाता, कङ्कटुक पकाता है। यह सही प्रयोग है। उस में पाक क्रिया से होनेवाली नरमी का विकार जो फल है, वह कङ्कटुक मूंग में बिलकुल आता नहीं है; क्यों कि कङ्कटुक पकता ही नहीं है। फिर भी केवल कर्ता की प्रवृत्ति को लेकर 'वह कङ्कटुक को पकाता है' ऐसा प्रमाणिक प्रयोग होता है, और कङ्कटुक क्रिया का कर्म बनता हैं। इसी प्रकार मिथ्याबोध, मिथ्याभाषण इत्यादि क्रिया से अहित योग रूपी फल जड़ में न होने ११८ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001721
Book TitleLalit Vistara
Original Sutra AuthorHaribhadrasuri
AuthorBhuvanbhanusuri
PublisherDivya Darshan Trust
Publication Year
Total Pages410
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Literature, & Religion
File Size11 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy