SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 141
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ (ल०-इतरेतरापेक्षः कर्तृकर्मप्रकारः।) (पं०)- ननु इदमपि कर्थं निश्चितं यदुत अनागमं पापहेतोरप्यवश्यं पापभाव इत्याशङ्क्याह इतरेतरापेक्षः' = परस्पराश्रितः, 'कर्तृकर्मप्रकारः = कारकभेदलक्षणः । कर्ता कर्मापेक्ष्य व्यापारवान् कर्म च कर्तारमिति भावः । यथा प्रकाश्यं घटादिकमपेक्ष्य क्प्रकाशकः प्रदीपादिः, तस्मिश्च प्रकाशके सति प्रकाश्यमिति, तथा विपर्यस्तबोधादिपापहेतुमान् पापकर्ता पुमानवश्यं तथाविधकार्यरूपपापभाव एव स्यात्, पापभावोऽपि तस्मिन् पापकर्तरीत्यतः स्थितमेतद् यदुत प्रकारान्तरचेष्टनस्यानिष्टत्वसिद्धिः, हितयोगविपरीतत्वात्, विषयं प्रत्यहितयोगत्वं चेति। श्रावक अभिषेकादि जिनपूजा करे तो उस में पाप नहीं लगता है। ऐसे तो हिंसा पाप का कारण है, फिर भी यहाँ शास्त्रविहित अपवाद होने से इससे अशुभकर्म का बंध नही होता है। इससे विपरीत शास्त्राज्ञाविरुद्ध वर्ताव करे तो पाप जरुर लगता है; जैसे कि साधु नीचे देखे बिना चले और उसमें किसी जीव का अनिष्ट याने हिंसा शायद न भी हुइ हो, तो भी उसमें साधु की अपनी तो प्रमाद दशा ही होने से अपने लिए अशुभ कर्म का उपार्जन अवश्य होता ही है। अतः कहा जाता है कि यथार्थ दर्शन से विरुद्ध वर्तन करने वाला पुरुष अन्य के लिए अनिष्ट करता हो या न करता हो लेकिन अपने लिए तो अनिष्ट प्राप्ति में निमित्त बनता ही है। कर्तृभाव-कर्मभाव परस्पर सापेक्ष है :प्र०- यह निश्चित रूप से कैसे कहा जाय कि आगमबाह्य पापजनक बर्ताव करने से पापभाव ही होता है? उ०- कर्त-कर्मभाव अर्थात् कर्तृत्व और कर्मत्व परस्पर आश्रित है। क्रिया का कोई भी कर्ता है तो उसकी अपेक्षा से कर्म है; और कर्म है तो कोई कर्ता भी है। दृष्टान्त के लिए, प्रकाश क्रिया का कर्म घट इत्यादि है तो उस कर्म घट आदि की अपेक्षा से कर्ता दीप प्रकाश देने की क्रिया करने वाला भी है। ऐसे प्रकाश करने वाले दीप की अपेक्षा से प्रकाश्य घट इत्यादि कर्म भी है। इसी प्रकार प्रस्तुत में भी शास्त्र से विपरीत बोध, विपरीत उपदेश, इत्यादि पापहेतु वाला पुरुष पापहेतुभूत पापक्रिया का कर्ता तभी कहा जा सकता है कि जब उस क्रिया के कर्म के रूप में तथा विध कार्यस्वरूप पाप है। तथा पाप भी क्रिया के कर्म के रूप में तभी गिना जा सकता है कि पापक्रिया का कर्ता आदि कोई है। सारांश कि आगम के आदेश को छोडकर की जाती दूसरे प्रकार की वस्तुदर्शनादि-प्रवृत्ति अयथार्थ होती हुई अवश्य पापजनक होने से अनिष्ट रूप है। क्यों कि वह यथार्थ दर्शनादि रूप स्वहित की प्रवृत्ति से विपरीत है। उतना ही नहीं परन्तु जिस विषय में विपरीत दर्शन आदि प्रवृत्ति की जाती है, उस विषय के प्रति भी वह कई बार अहितकारी बनती है। जैसे कि पृथ्वीकायादि स्थावरजीव का जीव के रूप में यथार्थ दर्शन न करे और जड के रूप में मिथ्यादर्शन, एवं मिथ्याभाषण करे, तो फलतः श्रोताओं में उन जीवों की हिंसा की प्रवृत्ति जो होती है, उससे उन जीवों को भी अहित अनिष्ट पहुँचता है। तब यहाँ प्रश्न उठेगा कि : प्र०-अयथार्थ दर्शनादि यदि किसी जड़ सम्बन्धी हो, तो उस में उस जड़ का क्या अहित होगा? क्यों कि जड़ वस्तु के लिए तो इष्ट-अनिष्ट का प्रश्न ही नहीं उठता है। अतः ऐसे मिथ्यादर्शनादि के बाद जो क्रिया प्रवर्तित होगी, उसके फलस्वरूप कोई अनिष्ट उस जड़ को तो स्पर्श करने वाला है नहीं। फिर यदि कहेंगे कि वहाँ अहित का योग औपचारिक रूप से कहते हैं, तो समान न्यायसे यथार्थ दर्शनादि करने वाले में भी हित का योग औपचारिक रूप से खडा होगा, लेकिन वह ठीक नहीं है। क्यों कि ऐसे औपचारिक गुण पर वास्तविक स्तुति प्रवृत्त हो सकती नहीं है। स्तुति का विषय तो वास्तविक होना चाहिए। फिर यहाँ तो औपचारिक हितयोग एवं औपचारिक लोकहितकारिता की आपत्ति आने से प्रश्न होगा कि अर्हत् परमात्मा वास्तविक सर्वलोकहितकारी कैसे? ११६ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001721
Book TitleLalit Vistara
Original Sutra AuthorHaribhadrasuri
AuthorBhuvanbhanusuri
PublisherDivya Darshan Trust
Publication Year
Total Pages410
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Literature, & Religion
File Size11 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy