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________________ ननु परेष्वहितयोगस्यानैकान्तिकत्वे कथं तत्कर्त्तृरनिष्टाप्तिहेतुत्वमैकान्तिकं प्रकारान्तरचेष्टनस्येत्याशङ्क्याह 'अनागमम्' = आगमादेशमन्तरेण, 'पापहेतोरपि' अयथावस्थितदर्शनादेरकुशलकर्म्मकारणात् 'पापभावाद्' = अकुशलकर्म्मभावात् । पापहेतुकृतात् पुनः परेष्वपायात् पापभाव एवेति 'अपि ' शब्दार्थः । अयमभिप्रायः, आगमादेशेन क्वचिदपवादे जीववधादिषु पापहेतुष्वपि प्रवृत्तस्य न पापभावः स्याद्, अन्यथा तु प्रवृत्तौ परेषु प्रत्यपायाभावेऽपि स्वप्रमाददोषभावान्नियमतः पापभाव इति तत्कर्त्तृरनिष्टाप्तिहेतुत्वमैकान्तिकमिति । = कि तथाप्रकार के रोग वाले को अर्थात् जो रोग स्वादिष्ट पथ्य अन्न ही के लिये योग्य है, ऐसे रोग वाले को ऐसा पथ्य हित रूप बनता है) इस में पथ्य को स्वादिष्ट लेने का तात्पर्य यह है कि वह तत्काल में भी सुखकारी होगा । यदि पथ्य स्वादिष्ट न हो तो वह वर्तमान में सुख का कारण न बनने से एकान्त रूप से इष्ट नहीं कहा जा सकता । यहाँ इतना ध्यान रखा जाय कि यह स्वादिष्ट पथ्य अन्न को जो इष्ट कहा, वह उपचार से इष्ट समझना; क्यों कि सचमुच इष्ट तो इससे जो उपकार होता है, वही है। कहा गया है कि, : कज्जं इच्छंतेणं अणंतरं कारणं पि इट्ठति । जह आहारजतिति इच्छंतेणेह आहारो ॥ अर्थात् कार्य की इच्छा वाले को उसके पूर्व का कारण भी इष्ट होता है। जैसे कि यहाँ आहार से होनेवाली तृप्ति की जिसे इच्छा है उसे आहार भी इष्ट होता है। इस प्रकार कल्याणप्रवृत्ति स्वरूप यह क्रिया भी इष्ट का कारण होने से इष्ट स्वरूप सिद्ध होती है। इसीलिए ऐसी क्रिया को भी इष्ट कहा जाता है। विपरीत दर्शनमें अहित कैसे ? : प्रस्तुत में पहले जो कहा गया कि वस्तु को जो यथार्थ स्वरूप में देखता है, और उसके अनुरुप वर्ताव करता है वह उस वस्तु के प्रति हितरुप है; इसीको निषेध रूप से ऐसा कहा जा सकता है कि इस प्रकार को छोड़कर अन्य रीति से दर्शन और बर्ताव करने से अनिष्टता, असुखकारिता उत्पन्न होती है । क्यों कि वह अन्य प्रकार का दर्शन-बर्ताव उस के कर्ता को अशुभ कर्म का बंध कराने में कारणभूत बनता है। अभिप्राय यह है कि जो यथार्थ दर्शन न करते हुए विपरीत दर्शन करता है, वह बाद में उसके अनुसार विपरीत प्ररूपणा करते हुए चेतन या जड़ के प्रति अनुचित बर्ताव करता है अथवा एकाध बार उचित वर्ताव करता भी हो तो भी विपरीत दर्शन के कारण वह भावी अनर्थ को रोक सकता नहीं है। इससे वह स्वयं अशुभ कर्म से बन्धा जाता है; और विशेष में अन्य के प्रति अनिष्ट का कारण बनने का संभव है, शायद न भी बने, एकान्त नहीं है, सामनेवाला जड़ पदार्थ हो तो उसे कुछ भी अनिष्ट याने दुःख होने वाला नहीं है, परन्तु यदि चेतन हो तो अनिष्ट हो भी सकता है। प्रo - यथार्थ दर्शनादि से विरुद्ध बर्ताव करने में यदि अन्य को अनिष्ट का योग होने का निश्चित न हो तो उस विरुद्ध बर्ताव करने वालो को निश्चित अनिष्ट प्राप्त होगा, यह भी कैसे कहा जा सकता है ? आगमविरुद्धाचरण ही मुख्य पापहेतु : • - कहने में कारण यह है कि आगमशास्त्र के आदेश को छोड कर पाप के हेतु में प्रवर्तने से पाप लगता ही हैं। विपरीत दर्शनादि करने पर अशुभ कर्मोपार्जन अवश्य होता है; अर्थात् अयथार्थ दर्शनादि करने वाले को तो अशुभ कर्म लग ही जाता है। फिर इससे प्रतिव्यक्ति को भी कुछ अनिष्ट होता हो तो इसकी वजह भी पाप लगता ही है। अभिप्राय यह हैं कि जहाँ आगम द्वारा किसी संयोग में अपवाद रूप से जीवहिंसादि विहित किया गया हो वहां उस में प्रवृत्त होने से, पापभाव नहीं होता हैं। उदाहरणार्थ, साधु शास्त्राज्ञानुसार नदी पार करे या ११५ उ० Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001721
Book TitleLalit Vistara
Original Sutra AuthorHaribhadrasuri
AuthorBhuvanbhanusuri
PublisherDivya Darshan Trust
Publication Year
Total Pages410
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Literature, & Religion
File Size11 MB
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