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(ल०- विपरीतबीधादवश्यं पापबन्धः )
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अतोऽन्यथा तदनिष्टत्वसिद्धिः, तत्कर्तुरनिष्टाप्तिहेतुत्वेन; अनागमं पापहेतोरपि पापभावात् ।
( पं०) एवं व्यतिरेकमाह 'अत: ' = उक्तरूपाद् 'यो यं याथात्म्येन पश्यती' त्यादिकात् प्रकारात्, 'अन्यथा' = प्रकारान्तेरण चेष्टायां, 'तदनिष्टत्वसिद्धि:' 'तस्याः ' चेष्टायाः - अनिष्टत्वम् = असुखकारित्वं, तस्य सिद्धिः = निष्पत्तिः । कथमित्याह 'तत्कर्तुः ' = प्रकारान्तरेण चेष्टाकर्तुः, 'अनिष्टाप्तिहेतुत्वेन' अनिष्टं चेहाशुभं कर्म, तस्य आप्तिः = बन्धः, तस्या हेतुत्वेन प्रकारान्तरचेष्टायाः । अयमभिप्रायो, विपर्यस्तबोधो विपरीतप्रज्ञापनादिना चेतनेष्यचेतनेषु वाननु (प्र०..... वानु०) रूपं चेष्टमानोऽनुरूपचेष्टनेऽपि भाविनमपायमपरिहरन्नियमतोऽशुभकर्म्मणा बध्यते । परेषु त्वनिष्टाप्तिहेतुः स स्यान्नवेत्यनेकान्तः; अचेतनेषु न स्याच्चेतनेषु तु स्यादपीति भावः ।
के प्रति अनुग्रह का हेतु बनता है। इस से यह स्पष्ट है कि सत्यभाषी माने जाते लौकिक कौशिकऋषि की तरह जो भाव अर्थ में कारणभूत है वह उसे हितरूप नहीं है उस के प्रति अनुग्रहका कारण नहीं कहा जा सकता, क्योंकि उसमें वास्तव यथार्थ दर्शन ही नहीं है ।
दो प्रकार का इष्ट :
हित रूप का तात्त्विक अर्थ यही है कि यथार्थ दर्शनादि करते हुए भावी अनर्थ को पैदा न करना । सच्चे वस्तुदर्शनादि क्रिया करने वाले का इष्ट इसी प्रकार, यानी यथार्थ दर्शन, यथार्थ निरुपण, इत्यादि प्रकार से ही संपन्न हो सकता है। इस में इष्ट दो तरह का हो सकता है :
(१) यथार्थ दर्शनादि क्रिया, जो चाहे सामान्यतः चेतन जीव सम्बन्धित हो, या अचेतन जड़ वस्तु सम्बन्धित हो, लेकिन उस क्रिया से मात्र अपने में पापनिरोध स्वरूप संवर आदि का जो इष्ट लाभ होता है, वह एक प्रकार का इष्ट है; जैसे कि सिद्ध भगवान सम्बन्धी सत्य भाषण करने में सिद्ध भगवान को तो नहीं परन्तु वक्ता को संवरादि का लाभ होता है ।
(२) यदि वह यथार्थ दर्शनादि क्रिया अमुक विशेष जीव सम्बन्धी हो, तो इस क्रिया से अपने और सामने वाले के लिए जो लाभ हो वह दूसरे प्रकार का इष्ट है; जैसे कि 'वनस्पति में जीव है', ऐसा सत्य दर्शन और सत्य भाषण किया जाय, तो इससे अपने को संवरादि का लाभ होता है, और वनस्पतिकाय जीव को जीव के रूप में परिचय देने से, अन्य लोग उस की हिंसा नहीं करेंगे, इस दृष्टि से उस जीव को भी अभय, अक्लेश का लाभ होता है। इस प्रकार दो तरह का इष्ट यथार्थ दर्शनादि पर ही घट सकता है।
इष्ट इस प्रकार भावी अनर्थ को रोकने वाला है यह तभी कहा जा सकता है जब कि वह सपरिणाम हित हो, अर्थात् वह इष्ट तत्काल भी सुखकारी हो यानी कल्याण प्रवृत्ति से साध्य उपकार रूप हो, एवं उत्तरोत्तर भी शुभफल की परंपरा का सर्जक हो । जैसे कि, जिसे रोग नष्ट प्राय हुआ हो, ऐसे पुरुष के लिए जिह्वेन्द्रिय को रुचिकर स्वादिष्ट पथ्य अन्न वर्तमान काल में तो सुखकारी लगता ही है, परन्तु उत्तरोत्तर भी पुष्टिवर्धक बनता जाता है । 'पथ्य' का अर्थ है पथ में योग्य । पथ का अर्थ सतत प्रसार करने योग्य ऐसा भावी काल होता है; तो जो भावी काल के लिये योग्य है वह पथ्य है। जिसे रोग नया याने अभी अभी शुरु हुआ हो, ऐसे मनुष्य के लिए, 'अहितं पथ्यमप्यातुरे' इस वचन से पुष्टिकारक पदार्थ भी अहितकर बनता है । अत: उसको पथ्य के लिए अधिकार ही नहीं । (यहाँ ललितविस्तरा में "अतिरोगिणः " पाठ के बदले "इतिरोगिणः " पाठ भी मिलता है, वहाँ अर्थ होगा
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