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(ल०-'तथाभव्यत्व' स्वरू पम्-) तथाभव्यत्वमिति च विचित्रमेतत्, कालादिभेदेनात्मनां बीजादिसिद्धिभावात्; सर्वथा योग्यताऽभेदे तदभावात् ।
(पं०-) एवं सामान्यतो भव्यत्वमभिधायाथ 'तदेव प्रतिविशिष्टं सत् तथाभव्यत्वम्' - इत्याह 'तथाभव्यत्वमिति च' । 'तथा' = तेनानियतप्रकारेण, 'भव्यत्व' मुक्तरूपम्, 'इति' शब्दः स्वरूपोपदर्शनार्थः, 'च' कारोऽवधारणार्थो भिन्नक्रमः ततश्च यदेतत् तथाभव्यत्वं तत् किम् ? इत्याह 'विचित्रं' = नानारूपं सद् 'एतद्' एव भव्यत्वं तथाभव्यत्वमुच्यते। कुत इत्याह कालादिभेदेन' = सहकारिकालक्षेत्रगुर्वादिद्रव्यवैचित्र्येण, 'आत्मनां' = जीवानां, 'बीजादिसिद्धिभावात्,' 'बीज' = धर्मप्रशंसादि, 'आदि' शब्दात् धर्मचिन्ताश्रवणादिग्रहस्तेषां, 'सिद्धिभावात्' = सत्त्वात्। व्यतिरेकमाह सर्वथा योग्यताऽभेदे' = सर्वैः प्रकारैरेकाकारायां योग्यतायां तदभावात्' = कालादिभेदेन बीजादिसिघ्यभावात् । कारणभेदपूर्वकः कार्यभेद इति भावः ।
तथाभव्यत्व का स्वरूप:
इस प्रकार सामान्यरूप से भव्यत्व का स्वरूप कह कर अब तथाभव्यत्व का स्वरूप कहते हैं। भव्यत्व तो सिर्फ सिद्धिगमन की योग्यता रूप होने की वजह सभी सिद्धिगमन-योग्य भव्य जीवों में समान होता हैं। लेकिन वही जब प्रतिव्यक्ति देखा जाए तब विशिष्ट प्रकार का होने से तथाभव्यत्व कहलाता है। 'तथा' शब्द का अर्थ है उस उस अनियत प्रकार से, 'भव्यत्व' माने मोक्ष पाने की योग्यता । ललितविस्तरा में 'तथाभव्यत्वमिति च विचित्रमेतत् (भव्यत्वं) कहा, वहां 'च' का अर्थ अवधारण अर्थात् 'ही' है, और उसे 'इति' के साथ नहीं किंतु भिन्न क्रम से भव्यत्व की साथ लगाने का है। इससे अर्थ यह होगा कि तथाभव्यत्व क्या है ? तो कहा जाय कि विचित्र यानी भिन्न भिन्न स्वरूपवाला होता हुआ भव्यत्व ही तथाभव्यत्व है।
प्र०-आप तो पहले भव्यत्व को समान यानी एकरूप कह आये, फिर वहीं भिन्न भिन्न स्वरूपवाला कैसे कह सकते?
- उ०- ठीक है, यों तो भव्यत्व सामान्य रूप से मोक्षप्राप्ति की योग्यता रूप होने से एक-सा ही है; फिर भी एसा नहीं कि सभी भव्य जीव एक ही प्रकार से मोक्षगमन करते हैं। एवं मोक्ष प्राप्त करने के लिए जो साधना की जाती है वह भिन्न भिन्न व्यक्तियों में किसी एक ही प्रकार से नहीं बनती हैं, किन्तु अलग अलग रूप से होती है। कारण यह है कि मोक्ष के उपायभूत धर्म की प्रशंसा, धर्मचिन्ता, धर्मश्रवण, वगैरह जो कि धर्म के बीजवपन, अंकुरनिर्माण... इत्यादि स्वरूप है, उनके सहकारी कारण, जैसे कि काल, क्षेत्र, गुरु आदि द्रव्य, जीवों को जो प्राप्त होते हैं, वे एक ही रूप के नहीं लेकिन विचित्र विचित्र रूप के होते हैं । अर्थात् कोई जीव किसी काल और क्षेत्र में उन्हें प्राप्त करता है तो दूसरा जीव दूसरे ही काल-क्षेत्र में प्राप्त करता है। यों, अमुक जीव को किसी गुरु द्वारा, और अन्य जीव को दूसरे ही गुरु द्वारा मिलता है। इस प्रकार कोई जीव अमुक अमुक धर्मस्थान, धर्मसामग्री, वगैरह द्वारा, और दूसरा जीव अन्य ही द्वारा उनमें चड़ता हैं । जीवों की उनमें प्रगति भी अन्यान्य वेग से होती है। यह सब देखने से पता चलता है कि धर्मसाधना यानी मोक्ष के प्रति प्रयाण विविध रूप से होता है। यह प्रयाण योग्य यानी भव्य जीवों में ही हो सकता है, लेकिन वह विविध रूप का होने में जीवों में विविध योग्यता आवश्यक है। क्योंकि योग्यता अगर एक ही रूप की हो, तो धर्मबीजादि की सिद्धि एक ही रूप की अर्थात एक ही कालक्षेत्रादि सामग्री पाकर होगी, भिन्न भिन्न कालादि पाकर नहीं, योग्यता कारण हैं; बीजादी-सिद्धि कार्य है। कार्य में भिन्नता कारण की भिन्नतापूर्वक ही होती है यह तात्पर्य है।
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