________________
(ल०- भव्यत्वस्वरू पम्:-) 'भव्यत्वं' नाम सिद्धिगमनयोग्यत्वम्, अनादिपारिणामिको भावः ।
(पं०-) 'भव्यत्व' मित्यादि, भविष्यति विवक्षितपर्यायेणेति भव्यः, तद्भावो भव्यत्वम् । 'नामे' ति संज्ञायाम् । ततो भव्यत्वनामको जीवपर्यायः । सिध्यन्ति = निष्ठितार्था भवन्ति जीवा अस्यामिति 'सिद्धिः' सकलकर्मक्षयलक्षणा जीवावस्थैव । तत्र गमनं तद्भावपरिणमनलक्षणं 'सिद्धिगमनं' तस्य योग्यत्वं' नाम योक्ष्यते सामग्रीसम्भवे स्वसाध्येनेति योग्यं, तद्भावो योग्यत्वम् । 'अनादिः' = आदिरहित, स चासौ 'परि' इति सर्वात्मना 'नामः' = प्रह्वीभावः 'परिणामः', स एव पारिणामिकाश्चानादि पारिणामिको 'भावः' = जीवस्वभाव एव ।
'प्राप्ति' शब्द की अपेक्षा परिणमन' शब्द लगाने से जैन दर्शन की विशेषता सूचित होती है। प्राप्ति में सिर्फ वस्तु का किसी से संबन्ध हुआ इतना ही, लेकिन परिणमन में तो वस्तु तद्रूप हो जाती है। उदाहरणार्थ न्याय-दर्शन कहता है कि वस्त्र बना तब तन्तुओं में वस्त्र की प्राप्ति हुई, सम्बन्ध हुआ; ऐसे वस्त्र रक्त हुआ तो वस्त्र में रक्त वर्ण की प्राप्ति यानी सम्बन्ध मात्र हुआ; जब कि जैन दर्शन कहता है कि खुद तन्तुओं का वस्त्र रुप में परिणमन हुआ, इसी से लोकव्यवहार होता है कि तन्तु खुद वस्त्र बन गए । यों वस्त्र स्वयं रक्त रूप में परिणत हुआ तभी तो लोग कहते हैं कि वस्त्र लाल बन गया। तात्पर्य, भिन्न भिन्न गुण-पर्यायात्मक अवस्थाओं में वस्तु का ही वैसा वैसा परिणमन होता है, और उन अवस्था एवं वस्तु के बीच भेदाभेद संबन्ध रहता है। इस लिए जो लोग न्याय-वैशेषिकादि दर्शन और जैनदर्शन की इस प्रकार तुलना करते हैं कि दोनों ही दर्शन द्रव्यों को गुण के आश्रय मानते हैं वे भ्रान्त हैं। क्यों कि उन जैनेतर दर्शनों के मत में तो गुणों को द्रव्यों से बिलकुल भिन्न मान लेने पर यह प्रश्न खडा होता है कि उनका जो सम्बन्ध द्रव्य से होगा वह द्रव्य से भिन्न होगा या अभिन्न ? भिन्न मानने पर यह प्रश्न होगा कि फिर उस का और द्रव्य का जो सम्बन्ध होगा वह द्रव्य से भिन्न होगा या अभिन्न ? इस इस प्रकार प्रश्न परंपरा से अनवस्था दोष आयेगा, इस से बचने के लिए संबन्ध को अभिन्न मान लेंगे तो प्राप्तिवाद नहीं किंतु परिणमनवाद स्वीकार करना होगा। एवं, अगर यह मान्य है तो खुद गुण पर्यायों में ही आश्रय द्रव्य का परिणमन क्यों न मान लिया जाय?
योग्यता और अनादि पारिणामिक भावः
सारांश, मोक्ष-अवस्था जीव की एक परिणति है परिणाम हैं । वही है मोक्षगमन, सिद्धि-गमन । यह बनने की योग्यता का नाम भव्यत्व है। 'योग्य' शब्द का अर्थ यह है कि समस्त सामग्री मिलने पर अपने साध्य के साथ जिसका योग हो सके वह योग्य । योग्य का भाव है योग्यता । तो जीव में भव्यत्व भी एक प्रकार की योग्यता है। भव्यत्व उत्पन्न नहीं होता है, वह तो अनादि कालसे चला आता है। पहले से ही कोई जीव भव्य है और कोई अभव्य । भव्यत्व को पैदा किया जा सकता नहीं है। इसीलिए उसे अनादि पारिणमिक भाव कहते है, अर्थात् वह अनादि का एक जीव परिणाम हैं।
प्र०- 'परिणाम' शब्द का क्या अर्थ है ?
उ०- 'परि' का अर्थ है सर्वात्मना यानी समस्त ओर से; 'णाम' का अर्थ है नमन होना, तद्रूप होना। तो भव्यत्व नामका परिणाम माने जीव का एक ऐसा भव्यत्व स्वभाव जो कि जीव में सभी ओर से तद्रूप हो कर रहता है। वह अनादि परिणाम है लेकिन देवत्व-मनुष्यत्व आदि की तरह आदिमान परिणाम नहीं । वही अनादि परिणाम अनादि पारिणामिक भाव कहलाता है।
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org