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________________ (ल०-) (लोकशब्दसमुदायार्थ-प्रस्तुतार्थी) इह यद्यपि 'लोक' शब्देन तत्त्वतः पञ्चास्तिकाया उच्यन्ते, 'धर्मादीनां वृत्तिर्द्रव्याणां भवति यत्र तत् क्षेत्रम् । तैर्द्रव्यैः सह लोकस्तद्विपरीतं ह्यलोकाख्यम् ॥' इति वचनात्, तथाप्यत्र 'लोक' ध्वनिना सामान्येन भव्यसत्त्वलोक एव गृह्यते; सजातीयोत्कर्ष एवोत्तमत्त्वोपपत्तेः। अन्यथातिप्रसङ्गोऽभव्यापेक्षया सर्वभव्यानामेवोत्तमत्त्वात् । एवं च नैषामतिशय उक्तः स्यादिति परिभावनीयोऽयं न्यायः । ततश्च भव्यसत्त्वलोकस्य सकलकल्याणैकनिबन्धन-तथाभव्यत्वभावेनोत्तमाः लोकोत्तमाः । 'धर्मादीनां वृत्तिर्द्रव्याणां भवति यत्र तत् क्षेत्रम् । तैर्द्रव्यैः सह लोकस्तद्विपरीतं ह्यलोकाख्यम् ॥' अर्थात् धर्मास्तिकायादि द्रव्य जिस क्षेत्र में रहते हैं उन द्रव्यों सहित उस क्षेत्र को 'लोक' कहते हैं, और विपरीत को अर्थात् इनसे रहित क्षेत्र को अलोक कहते हैं। फिर भी 'लोगुत्तमाणं' पद के 'लोक' शब्द से सामान्यतः भव्य जीव-लोक मात्र ही गृहीत किया जाता है अतः 'लोगुत्तमाणं' पद का अर्थ होगा, भव्य जीव वर्ग में उत्तम ऐसे परमात्मा को मेरा नमस्कार हो । प्र०- पञ्चास्तिकाय में तो कई भाग हैं, फिर यहां 'लोक' का अर्थ सिर्फ भव्य जीवलोक ही क्यों किया जाता है? उ०- कारण यह है कि यहां परमात्मा का उत्तमत्व यानी उत्कर्ष दिखलाना है और उत्कर्ष समान जाति वालों में ही हो सकता है। सजातीयों की अपेक्षा उत्कर्ष हो तभी उत्तमत्व संगत हो सकता है। उदाहरणार्थ, हत्थी पशु सृष्टि में उत्तम है ऐसा कहा जाता है, किन्तु कीड़े मकोडे आदि जन्तुओं में या जड़वर्ग में उत्तम नहीं कहा जाता है। इसी प्रकार भव्य जीववर्ग में अर्हत् परमात्मा उत्तम है यह कहना समुचित है। आदि ऐसा न कहें तो अतिप्रसङ्ग होगा; अनिष्ट आपत्ति लगेगी; क्यों कि अभव्यों की अपेक्षा तो सभी भव्य जीव उत्तम हैं ही; फिर वे सभी लोकोत्तम कहे जाएँगे ! इस आपत्ति को मान्य नहीं कर सकते; कारण ऐसी ही लोकोत्तमता अर्हत्प्रभु में कहने में तो वे और भव्य समान हो जाने से अर्हत् प्रभु की कोई विशेषता ही उक्त नहीं हुई। इसलिये यह न्याय चिन्तनीय है। इस न्याय से यह ज्ञात होता है कि अर्हत् प्रभु में ऐसा विशिष्ट तथाभव्यत्व है जो कि सकल जीवों के कल्याण में और अपने समस्त कल्याणों में कारणभूत हैं। ऐसा तथाभव्यत्व अन्य भव्य जीवों में, भव्यत्व होते हुए भी, नहीं है। इसीलिए परमात्मा को भव्य जीवलोक में उत्तम कहते हैं। भव्यत्व क्या है ? प्र०- यहां परमात्मा को भव्य जीवों में उत्तम कहा, भव्य माने भव्यत्व वाले; तो प्रश्न होता है 'भव्यत्व किसे कहते हैं?' उ०- जो जीव विवक्षित मोक्षपर्याय से युक्त होगा, वह भव्य कहा जाता है। भव्य का स्वभाव है भव्यत्व । ललितविस्तरामें 'भव्यत्वं नाम' कहा यहां 'नाम' शब्द दिया वह संज्ञा यानी नाम के अर्थ में हैं तो अर्थ हुआ भव्यत्व नामका जीवपर्याय । भव्यत्व यह जीव में सिद्धिगमन की योग्यता रूप अवस्था हैं । 'सिद्धि' शब्द का अर्थ है, जिस में जीव सिद्ध होते हैं ऐसी यानी समस्त प्रयोग जन पूर्ण कर चुके ऐसी सकल कर्मबन्धनों की क्षय अवस्था । यह जीव की ही अवस्था है। उस में जीव का जो परिणमन होता है वही सिद्धिगमन है। प्राप्ति और परिणमन में अंतर:--- १०२ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001721
Book TitleLalit Vistara
Original Sutra AuthorHaribhadrasuri
AuthorBhuvanbhanusuri
PublisherDivya Darshan Trust
Publication Year
Total Pages410
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Literature, & Religion
File Size11 MB
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