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________________ १०. लोगुत्तमाणं (लोकोत्तमेभ्यः ) (ल०-) (समुदायवाचिशब्दानामनेकविधावयवेष्वपि प्रवृत्ति :-) साम्प्रतं 'समुदायेष्वपि प्रवृत्ताः शब्दा अनेकधाऽवयवेष्वपि प्रवर्त्तन्ते, स्तवेष्वप्येवमेव वाचकप्रवृत्ति:' इति न्यायसंदर्शनार्थमाह 'लोकोत्तमेभ्यः...' इत्यादि सूत्रपञ्चकम् । (पं०~~) 'अनेकधा' - अनेकप्रकारेषु, 'अवयवेष्वपि' न केवलं समुदाय इति 'अपि' शब्दार्थः । 'शब्दाः प्रवर्त्तन्ते' यथा 'सप्तर्षि' शब्द: सप्तसु ऋषिषु लब्धप्रवृत्तिः सन्नेकः सप्तर्षिः, द्वौ सप्तर्षी, त्रयः सप्तर्षय उद्गता इत्यादिप्रयोगे तदेकदेशेषु नानारूपेषु अविगानेन प्रवर्त्तते, तथा प्रस्तुतस्तवे लोकशब्द इति भावः । तीसरी संपदा के चारों पदों का अब समन्वय बतलाते हैं। अर्हत् परमात्मा में पुरुषोत्तमता, पुरुषसिंहपन, पुरुषपुण्डरीकता और पुरुषगन्धहस्तिपन के अतिशय वाले धर्म होने से ही वे स्तोतव्य यानी स्तुतिपात्र होते हैं; इस लिए यह संपदा स्तोतव्य-संपदा की असाधारण रूप हेतु-संपदा हुई, अर्थात् अतिशय वाले हेतुओं की संपदा हुई । यहाँ इतना ध्यान रहें कि इन पुरुषोत्तमपन आदि चार गुण प्रत्येक तीर्थंकर में निम्नोक्त काल से एकान्ततः अर्थात् अवश्य होता है। इन चार में से पुरुषोत्तमपन पहले से होता है, क्यों कि अनादि संसार से वे पुरुषोत्तम होते है; और पुरुषसिंहपन एवं पुरुषगन्धहस्तिपन मध्य में होते हैं, क्यों कि जब अन्तिम भव में वे प्रव्रज्याव्रत की ग्रहणविधि करते हैं इसके बाद वे सिंह और गन्धहस्ति की सदृशता धारण करते हैं; एवं पुरुषपुण्डरीकपन अंत में होता है, क्यों कि मोक्ष में वे पुण्डरीक की समानता वाले होते हैं । १०. लोगुत्तमाणं ( भव्य लोगों में उत्तम ) समुदायवाची शब्दों की उसके अनेक प्रकार के भागों में प्रवृत्तिः - अब इस न्याय का प्रदर्शन करते हैं कि 'जो शब्द समुदाय को बतलानेवाले होते कभी कभी समुदाय के किसी-न-किसी भाग को भी बतलाते हैं; अर्थात् वे समुदाय के अनेक भागों में से कुछ भिन्न भिन्न भाग के लिए भी प्रवर्तमान होते हैं, और स्तुति में भी इसी प्रकार ऐसे शब्दों का उपयोग होता है; इस न्याय का प्रदर्शन करने के लिए अब 'लोगुत्तमाणं.....' इत्यादि पांच सूत्र दिये जाते हैं । अर्थात् ऐसे शब्द यद्यपि समुदाय को तो कहते ही हैं लेकिन कभी भिन्न भिन्न भागों को भी कहते हैं। उदाहरणार्थ, जिस प्रकार 'सप्तर्षिशब्द, सप्तर्षि का उदय हुआ- इस वाक्यमें सातों ऋषि-ताराओं का निर्देश करने के लिए प्रवर्तमान होता हैं; फिर भी प्रयोग होता हैं कि 'एक सप्तर्षि का उदय हुआ' 'दो सप्तर्षियों का उदय हुआ,' 'तीन सप्तर्षियों का उदय हुआ. इत्यादि । अर्थात् ऐसे ऐसे प्रयोग में वह उसके भिन्न भिन्न रुप के भागों में भी, विना विवाद, उपयुक्त होता है; इस प्रकार यहां प्रस्तुत 'लोगुत्तमाणं, लोगनाहाणं...' इत्यादि स्तुति में 'लोक' शब्द का विविध रूप से प्रयोग किया जाता है, तो लोगुत्तमाणं आदि पदों में 'लोक' शब्द का, समस्त लोक समुदाय में से, किसी-किसी भाग रूप अर्थ लेना हैं। 'लोक' शब्द का समुदायार्थ और प्रस्तुत अर्थ : यहां यद्यपि 'लोक' शब्द से वस्तुगत्या पञ्चास्तिकाय लोक अर्थात् धर्मास्तिकाय, अधर्मास्तिकाय, आकाशास्तिकाय, पुद्गलास्तिकाय और जीवास्तिकाय, इस पांचो का समुदाय कहा जाता है; कहा है कि Jain Education International १०१ For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001721
Book TitleLalit Vistara
Original Sutra AuthorHaribhadrasuri
AuthorBhuvanbhanusuri
PublisherDivya Darshan Trust
Publication Year
Total Pages410
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Literature, & Religion
File Size11 MB
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