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________________ (ल०-) तत्सहकारिणामपि तुल्यत्वप्राप्तेः, अन्यथा योग्यताऽभेदायोगात् तदुपनिपाता - क्षेपस्यापि तन्निबन्धनत्वात् । निश्चयनयमतमेतदतिसूक्ष्मबुद्धिगम्यम् । इति लोकोत्तमाः ॥ १० ॥ (पं०) पारिणामिकहेतोभव्यत्वस्याभेदेऽपि सहकारिभेदात् कार्यभेद इत्याशङ्कानिरासायाह, 'तत्सहकारिणामपि' 'तस्य' = भव्यत्वस्य, 'सहकारिणः = अतिशयाधायकाः प्रतिविशिष्टद्रव्यक्षेत्रादयः, तेषां, न केवलं भव्यत्वस्येति अपि' शब्दार्थः । किमित्याह 'तुल्यत्वप्राप्तेः' = सादृश्यप्रसङ्गात् । अत्रापि व्यतिरेकमाह 'अन्यथा' = सहकारिसादृश्याभावे, योग्यतायाः' = भव्यत्वस्य, अभेदायोगाद् = एकरूपत्वाघटनात् । एतदपि कुत इत्याह तदुपनिपाताक्षेपस्यापि,' 'तेषां' = सहकारिणाम्, 'उपनिपातो' = भव्यत्वस्य समीपवृत्तिः, तस्य 'आक्षेपो' = निशि स्वकालभवनं, तस्य । न केवलं प्रकृतबीजादिसिद्धिभावस्येति 'अपि'शब्दार्थः । 'तनिबन्धनत्वाद्' = योग्यताहेतुत्वात् । ततो योग्यताया अभेदे तत्सहकारिणामपि निश्चितमभेद इति युगपदुपनिपात प्राप्नोतीति । 'निश्चयनयमतं' = परमार्थनयाभिप्रायः 'एतद्' यदुत भव्यत्वं चित्रमिति । व्यवहारनयाभिप्रायेण तु स्यादपि तुल्यत्वं तस्य सादृश्यमात्राश्रयेणैव प्रवृत्तत्वात् । सहकारी का भेद भी योग्यताभेद पर निर्भर : प्र०- भव्यत्व में अनेक भेद क्यों माना जाएँ ? क्यों कि वह तो मोक्ष के प्रति पारिणामिक कारण है अर्थात् वहा योग्यता अन्त में जा कर मोक्ष रूप एक ही कार्य में परिणत होती है। यों यदि कार्य एक सरीखा, तो कारण भी एक सरीखा होना चाहिए। हां, मोक्ष-प्रयाण स्वरूप कार्य में जो फर्क पडता है वह सहकारी कारणों की भिन्नता से; किन्तु नहीं की योग्यता के भेद से; ऐसा क्यों न मानना?. उ०- ऐसा नहीं माना जा सकता, क्यों कि यदि योग्यता यानी भव्यत्व एकरूप होता, तो सहकारी कारणो में भी भिन्नता नहीं बन सकती, समानता ही हो जाती। और यदि समानता तो नहीं है किन्तु भिन्नता ही है तो भव्यत्व में भी एकरूपता नहीं घट सकती। इसका कारण यह है कि सहकारी कारणों की जो अमुक काल में ही भव्यत्व के निकटवर्तिता होती है वह भिन्न भिन्न निश्चित काल में होना यह वैसी वैसी योग्यता यानी भव्यत्व पर निर्भर है। सभी जीवों की भव्यत्व रूप योग्यता एकरूप होने पर सहकारी कारणों की भी निश्चित एकरूपता हो जाने से उनकी एकसाथ प्राप्ति हो जाती; फलतः सभी का एकसाथ मोक्ष हो जाता। __ इस प्रकार भव्यत्व प्रतिव्यक्ति भिन्न भिन्न होता है यह निश्चय नय यानी सूक्ष्मदर्शी परमार्थ नय का अभिप्राय है। व्यवहार नय के अभिप्राय से तो भव्यत्वों में समानता होती है, क्यों कि वह नय मात्र मोक्षगमन रूप सादृश्य को ले कर प्रवृत्त होता है तो कह सकता है कि मोक्षगमन की योग्यता सभी भव्यों में समान है। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001721
Book TitleLalit Vistara
Original Sutra AuthorHaribhadrasuri
AuthorBhuvanbhanusuri
PublisherDivya Darshan Trust
Publication Year
Total Pages410
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Literature, & Religion
File Size11 MB
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