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________________ (ल० ) - एतद्व्यपोहायाह 'पुरुषवरपुण्डरीकेभ्य' इति । पुरुषाः पूर्ववत्, ते वरपुण्डरीकाणीव संसारजलासङ्गादिना धर्म्मकलापेन पुरुषवरपुण्डरीकाणि । यथा पुण्डरीकाणि पङ्के जातानि, जले वर्धितानि, तदुभयं विहाय वर्तन्ते, प्रकृतिसुन्दराणि च भवन्ति; निवासो भुवनलक्ष्म्याः, आयतनं (प्रत्यन्तरे ' हेतव: ' ) चक्षुराद्यानन्दस्य, प्रवरगुणयोगतो विशिष्टतिर्यग्नरामरैः सेव्यन्ते, सुखहेतूनि च भवन्ति; तथैतेऽपि भगवन्तः कर्म्मपङ्के जाताः, दिव्यभोगजलेनवर्धिताः, तदुभयं विहाय वर्त्तन्ते, सुन्दराश्चातिशययोगेन, निवासो गुणसंपदां, हेतवो दर्शनाद्यानन्दस्य, केवलादिगुणभावेन भव्यसत्त्वैः सेव्यन्ते, निर्वाणनिबन्धनं च जायन्ते इति । (पं०)—न च वक्तव्यं, 'पूर्वसूत्रेणैवैतत्सूत्रव्यवच्छेद्या (प्रत्यन्तरे.....'दा') भिप्रायस्य सिंहोपमाया अपि विजातीयत्वेन व्यवच्छिन्नत्वात्, किमर्थमस्योपन्यासः इति ? ' तस्य निरुपमस्तव इत्येतावन्मात्रव्यवच्छेदकत्वेन चरितार्थस्य विवक्षितत्वात् । - 'पुरिससीहाणं' 'पुरुषवरपुण्डरीयाणं' ये दो अलग सूत्र क्यों हैं ? पूर्व के 'पुरिससीहाणं' सूत्र से ही इस सूत्र के खण्डनीय मत का निरास तो हो जाता है, क्यों कि पुण्डरीक की तरह सिंह की उपमा भी भिन्नजातीय ही है, सिंह पशुजातीय है, तो इसका उपन्यास क्यों किया ? - 'पुरिससीहाणं' पद से खण्डनीय है उपमाहीन स्तवके योग्य । अर्थात् 'परमात्मा किसी भी उपमा लगाकर स्तुति योग्य नहीं हैं,' इस मत के खण्डनार्थ दिया गया 'पुरिससीहाणं' पद सिंह की उपमा द्वारा चरितार्थ होने की विवक्षा की; जब कि यहां 'उपमा तो हो लेकिन सजातीय होनी चाहिए; विजातीय नहीं हो सकती, ' इस मत के खण्डन की विवक्षासे 'पुरिसवरपुंडरीयाणं' पद सार्थक माना गया। -OK उ० अर्हत् परमात्मा पुण्डरीक कैसे ? : अर्हत्परमात्मा ऐसे पुरुष हैं यानी पूर्वकहे 'पुरुष' पद के अर्थानुसार शरीरधारी हैं कि जो संसाररूपी जलको नहीं छूना इत्यादि गुण धर्मों के समूह से युक्त हैं। इसकी वजह वे श्रेष्ठ पुंडरीक कमल के समान हैं। तात्पर्य श्रेष्ठ पुंडरीक की कई विशेषताओं के साथ परमात्मा की विशेषताओंका इस प्रकार साम्य है : जिस प्रकार पुण्डरीक पङ्क में उत्पन्न होते हैं, पानी में बढतें है, फिर भी पङ्क और पानी दोनों को छोडकर उपर रहते हैं, एवं वे नैसर्गिक सौन्दर्यशाली होते हैं, दुन्यवी लक्ष्मीदेवी का आश्रय है, चक्षु-घ्राण-मन वगैरह को आनन्द का स्थान है, आनन्द का हेतु है, श्रेष्ठ गुण-संपन्नता के कारण अच्छे पशुपंखी मनुष्य और देवताओं से सेव्य बनते हैं, और सुख के कारण होते हैं, उस प्रकार, ये अरिहंत भगवान मोहनीयकर्म ज्ञानावरणकर्म आदि कर्म स्वरूप पङ्क में जन्म पाते है, और दिव्य आहार-वस्त्रालंकारादि भोग स्वरूप जलमें वर्धित भी होते हैं फिर भी उन कर्म एवं भोग दोनों का त्याग कर अनगार बनकर निःसंग, वीतराग और सर्वज्ञ, एसे योगीश्वरपन में रहते हैं । परमात्मा १. चौतीस अतिशय और २. वाणीके पैंतीस अतिशयों की वजहसे अनुपम सौन्दर्यशाली होते हैं। १. चौतीस अतिशय: - अन्य जीवों की अपेक्षा अरिहंत परमात्मा में जो विशिष्टताएँ होती हैं, उन्हें अतिशय कहते हैं । उनमें ४ मूल अतिशय, १९ देवकृत अतिशय और ११ कर्मक्षयकृत अतिशय हैं। ४ मूल अतिशयों में ( १ ) प्रभु के देहमें इन्द्र से भी अनंतगुण लावण्य और बल, प्रस्वेदका अभाव, सदैव नीरोगिता, इत्यादि होते हैं । ( २ ) सांस कमलकी भांति सुगंधित होती है । ( ३ ) देह में रक्त गोदुग्ध की भांति सफेद और मांसादि रमणीय होते हैं ( ४ ) प्रभु की आहार - विधि और निहार-क्रिया अदृश्य होती है। ८९ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001721
Book TitleLalit Vistara
Original Sutra AuthorHaribhadrasuri
AuthorBhuvanbhanusuri
PublisherDivya Darshan Trust
Publication Year
Total Pages410
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Literature, & Religion
File Size11 MB
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