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________________ ८. पुरिसवरपुण्डरीयाणं ( पुरुषवरपुण्डरीकेभ्यः) (अविरुद्धधर्माध्यास वाद-सुचारुमततन्निरासौ:-) (ल०)-एते चाविरुद्धधर्माध्यासितवस्तुवादिभिः सुचारुशिष्यैः विरुद्धोपमाऽयोगेनाभिन्नजातीयोपमारे एवाभ्युपगम्यन्ते; विरुद्धोपमायोगे तद्धर्मापत्त्या तदवस्तुत्वमितिवचनात् । (पं०)-'एते च' इत्यादि =एते च पूर्वसूत्रोक्तगुणभाजोऽपि,..... 'अभिन्नजातीयोपमाञ एवेष्यन्ते' इति योग: । कैरित्याह 'अविरुद्धैः'= एकजातीयैः, 'धम्मैः' स्वभावैः 'अध्यासितं' =आक्रान्तं, 'वस्तु' =उपमेयादि, वदितुं शीलं येषां ते तथा तैः, 'सुचारुशिष्यैः' =प्रवादिविशेषान्तेवासिभिः, 'विरुद्धोपमाऽयोगेन,' 'विरुद्धायाः' =उपमेयापेक्षया विजातीयायाः पुण्डरीकादिकाया 'उपमायाः' =उपमानस्य, 'अयोगेन' =अघटनेन, किम् इत्याह 'अभिन्न....' इत्यादि, 'अभिन्नजातीयाया एव' =भगवत्तुल्यमनुष्यान्तररूपाया (एव) 'उपमायाः' 'अर्हाः = योग्याः, 'इष्यन्ते' =अभ्युपगम्यन्ते । कुतः ? इत्याह 'विरुद्ध....' इत्यादि, 'विरुद्धोपमायाः' पुण्डरिकादिरूपायाः, योगे' संबन्धे, 'तद्धर्मापत्त्या' =विजातीयोपमाधापत्त्या, ('तदवस्तुत्वं') 'तस्य' = उपमेयस्य अर्हदादिलक्षणस्य, 'अवस्तुत्वं' तादृशमिणो वस्तुनोऽसम्भवात् । 'इतिवचनाद्' =एवंरूपाऽऽगमात् । ८. पुरिसवरपुण्डरीयाणं सुचारुशिष्यमत-'भिन्नजातीय उपमा नहीं' : अब सुचारु नामक किसी वादी के शिष्यों द्वारा एसा स्वीकार किया जाता है कि 'पूर्वोक्त सूत्रमें कहे हुए शूरत्वादि गुणों से युक्त भी परमात्मा अभिन्न जातीय ही उपमा के योग्य हैं।' क्यों कि वे सुचारुशिष्य अविरुद्ध धर्माध्यासित वस्तुवादी हैं। अर्थात् वे एसा प्रतिपादन करते रहते है कि अविरुद्ध धर्मों से यानी एकजातीय स्वभावों से ही संपन्न होने वाली वस्तु उपमेय बनती है, नहीं कि भिन्नजातीय धर्मो से । इस लिए उपमार्थ उपमान वस्तुभी एसी चाहिए कि जो भिन्नजातीय धर्मोवाली न हो । क्यों कि जिस उपमेय को उपमा लगानी है उस उपमेयकी अपेक्षा, दृष्टान्तसे, अगर पुंडरीक आदि उपमान एकेन्द्रियादि होने से भिन्नजातीय है, तो वह संगत नहीं हो सकता हैं। अतः परमात्मा अपने समानजातीय कोई दूसरे मनुष्य की ही उपमा के योग्य है, वैसा वे मानते हैं। कारण में 'विरुद्धोपमायोगे तद्धर्मापत्त्या तदवस्तुत्वम्'- एसा आगम बतलाते हैं । इसका अर्थ यह है कि एकेन्द्रिय जाति के पुंडरीक कमल आदि का उपमा रूपसे संबन्ध करने पर उपमेय परमात्मादि में उस विजातीय उपमा के स्वभावों की आपत्ति होगी । अर्थात् एकेन्द्रिय पुंडरीक आदि कमल के धर्म-जैसे कि, एकेन्द्रियपन, पङ्क में उत्पत्ति, अल्प चैतन्य, मूढता, अज्ञान, पापअविरति, इत्यादि की आपत्ति उपमेय अर्हत् परमात्मा आदि में लगेगी। फलतः वह उपमेय अवस्तु ठहर जायगा; क्यों कि ऐसे, पञ्चेन्द्रियता और एकेन्द्रियता, मानवी स्त्री में जन्म और पङ्को जन्म, मोहमूढता और वीतरागता, अज्ञान और सर्वज्ञता.... इत्यादि विरुद्ध धर्मो को एक साथ धरनेवाली कोई वस्तु ही नहीं बन सकती । इस लिए 'अर्हत् भगवान् पुण्डरीक जैसे हैं' यह नहीं कहना चाहिए। इस मत के निरसन के दो सूत्र क्यों ? : सुचारु शिष्यों के इस मत के खण्डनार्थ कहते हैं कि 'पुरिसवरपुण्डरीयाणं' श्रेष्ठ पुंडरीक के समान पुरुष अर्हत्प्रभु को मेरा नमस्कार हो । इस खण्डन पर शायद आप पूछेगे। ८८ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001721
Book TitleLalit Vistara
Original Sutra AuthorHaribhadrasuri
AuthorBhuvanbhanusuri
PublisherDivya Darshan Trust
Publication Year
Total Pages410
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Literature, & Religion
File Size11 MB
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