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________________ सत्य है। उपमा का आश्रय अगर न किया तो केवल स्वरूपनिरुपण कभी कभी ईतना हृदयग्राही और चित्त के सामने साक्षात् चित्रदर्शक नहीं बन सकता है जितनी एक सबल उपमा बन सकती है। परमात्मा शूर है वीर है.... इतना कहने से क्या बोध क्या आकर्षण होता, जितना 'प्रभु सिंह की भांति शूर-वीर है,- इस उपमा के कथन से होता है ? उपमा द्वारा आसानी से यथास्थित और गंभीर बोध होता है, इतना नहीं बल्कि चित्तप्रसाद भी होता है। अलबत्ता उपमा सर्वांश समान नहीं है फिर भी ऐसा बोध और आल्हादादि स्वरूप शुभ फल पैदा करने वाली और आंशिक समानतावाली उपमा असत्य कैसे कही जा सके ? बच्चों को पढाने-समझाने के लिए उन उन ढंग और उपमाओं से कहनेमें क्या असत्य भाषण का दोष लगता है ? प्र०-ठीक है किसी को सिंह आदि नीची उपमासे भी अर्हत्प्रभुके गुणों का बोध होता हो, लेकिन ऐसी उपमा निर्दोष नहीं है, फिर क्यों दी जाए ? उ०- देने का हेतु यह है कि उपकारविधि यानी जीवों पर उपकार करने की जो प्रक्रिया है वह उनकी योग्यतानुसार करनी पडती है; और वह कुछ लोगों के लिए नहीं किन्तु सभी लोगों के लाभार्थ की जाती है। उपकार इस प्रकारका हो उसमें कारण यह है कि संत पुरुषों द्वारा जो उपकार किया जाता है उसमें उपकारपात्र की और से कोई प्रत्युपकार पाने की अभिलाषा नहीं है, अर्हत्प्रभुकी स्तुति काव्यकी रचना करने में प्रशंसा प्रतिष्ठादि की कोई कामना नहीं होती है। उन्हें तो केवल एक ही कामना है कि अपने स्तुतिकाव्य का सहारा ले कर जीवों में अर्हद्भक्ति और आशय विशुद्धि प्रगट हो; अत एव जब वे उपकारविधि में प्रवर्तमान होते हैं, तब उसमें लक्ष यह रहेगा कि उपकारविधि सामनेवालों की योग्यतानुसार और व्यापक रूपकी रखी जाए ताकि उन्हें वस्तुतः उपकार हो । प्रस्तुत में वे देखते हैं कि जीव ऐसे है कि इस प्रकार ही अर्थात् सिंहादि की उपमा द्वारा ही उनका उपकार हो सकता है, अत: ऐसी उपमा देते हैं। इसलिए ऐसी उपमा सदोष नहीं, निर्दोष है। यहाँ इतना ध्यानमें रहे कि यह 'प्रणिपात-दण्डक' ('णमोत्थुणं'.....) सूत्र की रचना कोई सामान्य पुरुष द्वारा नहीं किन्तु महापुरुष द्वारा की गई है। खुद भगवान अरिहंत परमात्मा के गणधर शिष्य जो आदिमहर्षि हुए जो परमात्मा के शिष्यगण में प्रथम थे, और द्वादशांग श्रुत सागर के प्रणेता थे, उनके द्वारा यह रचना की गई है। इसीलिए यह समस्त सूत्र गम्भीर है, कई गम्भीर भावोंसे गम्भीर पदार्थों से भरा हुआ है; सकल न्यायों की यानी दृष्टान्त-तर्क-युक्तियों की खान हैं; भव्य प्रमोद को पैदा करनेवाला है; आर्ष यानी ऋषिप्रणीत होने से परम प्रमाणभूत वचन है; और दूसरों के लिए दृष्टान्तरूप है, अथवा दूसरे गंभीर सूत्रों के प्रमाणभूत है। श्री गणधर भगवान समस्त श्रुत यानी शास्त्रों के केवल पारगामी नहीं बल्कि स्वयं रचयिता होते हैं, और इनमें सर्वजनोपकारक इस अर्हद्गुण-स्तुति के सूत्रकी रचना की गई है; तो फिर इसकी गम्भीरता आदि सोच कर प्रश्न नहीं उठाना चाहिए कि, उपमा दुष्ट क्यों दी गई। सूत्र के प्रणेता और गाम्भीर्यादि गुणों को लक्षमें लेते तो प्रश्न के लिए कोई गुंजाईश नहीं रहती; और इस में अर्हत् परमात्मा को सिंह की उपमा लगाकर जो पुरुष सिंह कहा गया वह युक्तियुक्त प्रतीत होता। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001721
Book TitleLalit Vistara
Original Sutra AuthorHaribhadrasuri
AuthorBhuvanbhanusuri
PublisherDivya Darshan Trust
Publication Year
Total Pages410
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Literature, & Religion
File Size11 MB
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