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________________ अर्हत् प्रभु गुण-संपत्तियों के निवास स्थान हैं, और भव्य जीवों के सम्यग्दर्शन आदि आत्म-आनन्द प्रति हेतुभूत होते हैं। पुनः वे केवलज्ञानादि गुणों के सद्भाव की वजह भव्य जीवों द्वारा सेव्य होते हैं, एवं उनके मोक्षलाभ में कारणभूत बनते हैं। - यहाँ पुंडरीक के गुणों की बतलाई गई सदृशता बहुत मननीय है। इसमें भी अर्हत् परमात्माको गुणों का निवास स्थान कहा, वहां भी भगवंतपन, तीर्थंकरनपन, स्वयंसंबुद्धपन, पुरुषोत्तमपन, पुरुषसिंहपन और इस पुण्डरीकपन तथा आगे विशेषणों में प्रदर्शित किये कई गुण व्यक्तिशः मननीय हैं। इससे आदर्श परमात्मा, तारक परमात्मा, प्रेरक परमात्मा, विश्वोपकारक परमात्मा का क्या क्या स्वरूप होता है वह ध्यान में आएगा, श्रद्धेय बनेगा, और असर्वज्ञ - कल्पित मिथ्या स्वरूप अश्रद्धेय बन अनादरणीय सिद्ध होगा; एवं शुद्ध और तात्त्विक परमात्मा का शरण लेकर यथायोग्य मोक्षमार्गकी साधना बन सकेगी। १९ देवकृत अतिशयों में (१) चारित्र दीक्षा लेने के बाद कभी नख और केश उगते नहीं है केवलज्ञान सर्वज्ञता की प्राप्ति के बाद, (२६) जघन्यतः १ कोड देवता सेवामें रहते है चलते समय पैरों के नीचे देवकृत मृदु सुवर्ण कमल आ जाते है और पैर इनके पर पड़ते हैं। कण्टक उलटे हो जाते हैं, पेड़ो नमन करते हैं। और गगन में पक्षी प्रदक्षिणा देते हैं। (७-८) प्रभु जहां विचरते हैं वहां पवन अनुकूल बहता है, और सभी ऋतुओं के पुष्प फलादि विकसित हो उठते हैं । (९-१३) प्रभु के चलते समय आगे ऊंचा धर्मचक्र, रत्नमय ध्वज, रत्नसिंहासन, तीन छत्र और चामर साथ रहते हैं। (१४) प्रभु स्थिर हों, वहां एक योजन भूमि पर धूली न उठे इसलिए, सुगंधित जलवृष्टि हो जाती है। (१५) देशनाभूमि के लिए देवता रजत, सुवर्ण और रत्न के तीन उपरोपर गढ, इन पर सीढी, वापिका वगैरह रचते हैं। यह समवसरण कहा जाता है और एक योजन तक के विस्तार वाला होता है। (१६) समवसरण पर पुष्पवृष्टि होती है और प्रभु के अतिशय से पुष्प अधोमुख रहते हैं और जीवों से क्लेश नहीं पाते हैं। (१७) समवसरण पर छाया देनेवाला विशाल अशोकवृक्ष होता है। (१८) वहां प्रभु पूर्व दिशा में रत्नमय सिंहासन पर विराजमान होते हैं और तीन दिशाओं में देवता प्रभु के ठीक सदृश प्रतिबिम्ब स्थापित करते हैं जिससे चारों दिशाओं में प्रभु दीखते हैं। (१९) यहां ऊंचे गगनमें देवता लोगों को धर्मचक्रवर्ती का आगमन ज्ञात करने के लिए दुन्दुभि बजाते हैं। " ११. कर्मक्षयकृत अतिशयों में (१-८) प्रभु जहां विचरते है वहां १२५ योजनों में से रोग, वैरविरोध, टोडो आदि, प्लेगादि, अतिवृष्टि, दुष्काल स्वचक्रभय (आंतरिक विद्रोह) परचक्रभय ( पर सैन्य का आक्रमण) इन आठों उपद्रव दूर हो जाते हैं। (९) प्रभु के मुख के पीछे सूर्यसम तेजस्वी भामंडल रहता है (१०) समवसरण में कई करोडो श्रोताओं का समावेश हो जाता है और (११) पशु, पक्षी, मनुष्य, और देव सभी अपनी अपनी भाषा में प्रभु की देशना समझ लेते हैं। २. प्रभुके उपदेशकी वाणी ३५ अतिशयों से युक्त होती है। इनमें १. अलंकारादि से युक्त संस्कारित भाषा; २. उदात्तसुर यानी उच्च स्पष्ट आवाज ३. उपचारपरीत याने तुच्छ, उद्धत नहीं किन्तु शिष्टाचार एवं उदार शब्दयुक्त भाषा ४. मेघगंभीर यानी मेघगर्जना के समान गम्भीर घोष ५. गुहामें प्रतिध्वनित घंटनाद के सदृश प्रतिनादयुक्तता; ६. उच्चारण एवं श्रवण में सरलता स्वरूप दाक्षिण्य; ७. अति मधुर मालकोश राग; घंट के रणकार सम गंधर्वगीत या देवांगना के कोमल कंठगीत की अपेक्षा कई गुणी संगीतमय मधुरता ८. महार्थ यानी वचनों के महागम्भीर और विशाल अर्थ ९. पूर्वापर कथनों में कोई विरोध न होने स्वरूप अव्याघात; उपरांत परस्पर पुष्टि कर के वस्तुतत्व का सुंदर समर्थन या प्रतिपादन करना १०. शिष्ट भाषा अर्थात् महासज्जन पुरुषों की एवं सिद्धान्तानुसारी पदार्थों को कहने वाली भाषा; ११ असंदेहकर यानी श्रोतागण को कहीं भी संदेह पैदा न हो और निश्चित बोध करानेवाली हो ऐसी भाषा, १२. अनन्योत्तर-प्रभु के एक भी वचन के प्रति कोई प्रश्नोत्तर या दूषण उपस्थित न किया जा सके ऐसी वाणी १३ अति हृदयंगम वाणी १४. शब्दों, पदों एवं वाक्यों में परस्पर सापेक्षता, यानी सङ्गतिबद्ध पदार्थों का धारापद्ध वर्णन जिस से कोई असम्बद्ध पदार्थका निरुपण नहीं; १५. प्रत्येक शब्द प्रकरण, प्रस्ताव, देश, काल आदि को उचित; १६. तत्त्वनिष्ठ यानी वस्तुस्वरूप के अनुरुप प्रतिपादन; १७. अप्रकीर्णप्रसूत अर्थात् अप्रस्तुत या अतिविस्तृत निरुपण रहित; १८. परनिन्दा एवं स्वप्रशंसा से रहित वाणी; १९. अभिजात्य अर्थात् त्रिभुवनगुरुत्व स्वरूप स्वस्थान के अनुरुप उत्तम वचनप्रवाह; २०. स्निग्धमधुर, कई दिवसों तक सतत सुनने में क्षुधा तृषा कंटाल- थकावयदि न लगे ऐसी अति स्निग्ध और मधुर वाग्धाय २१. प्रशंसनीय, अर्थात् सर्व जनो में जिनवाणी का बहुत प्रशंसा-गुणगान; २२. अमर्मवेधी, सर्वज्ञता के प्रभाव से जीवों के मर्म यानी गुप्त रहस्य जानते हुए भी प्रगट न करे ऐसी एवं श्रोताओं के मर्मस्थान को आघात न पहुंचाने ऐसी वाणी २३. उदार, यानी महान एवं गम्भीर विषय की प्रतिपादक वाणी २४. धर्मार्थप्रतिवद्ध, अर्थात् शुद्ध धर्म की ही उपदेशक और सम्यग् अर्थ के साथ ही संबद्ध वाणी २५ कारकादि अविपर्यास, यानी व्याकरण की दृष्टि से कर्ता-कर्म वगैरह कारक विभक्ति एकवचनादि वचन, लिङ्ग, काल इत्यादि में कहीं भी स्खलना या उलटपुलट न होना; २६. विभ्रमादिवियुक्त, अर्थात् वक्ता के मन में भ्रान्तता, विक्षेप, आदि दोषशून्य वाणी; २७. चित्रकारी यानी श्रोता के दिल में अविच्छिन्न आतुरता एवं रम जारी रखनेवाली वाणी २८. अद्भुत अर्थात् विश्व के किसी भी वक्ता के प्रवचन की अपेक्षा अतिशय उच्च एवं चमत्कारपूर्ण वाणी २९. अनतिविलम्बो अर्थात् जल्दी जैसे वैसे या रुक रुक कर विलम्बसे बोली जाय ऐसी नहीं; ३०. अनेकजातिविचित्र, यानी वक्तव्य वस्तु के अनेक प्रकार के स्वरूप को वर्णन करनेवाली लचिली वाणी; ३१. आरोपित विशेषतायुक्त, अन्य वचनों की अपेक्षा अर्हत् परमात्मा के वचन वचन में स्थापित विशेषता ३२. सत्वप्रधान यानी निर्बल एवं तामसी वाणी नहीं किन्तु सात्विकता और पराक्रमपूर्ण वाणी; ३३. विविक्त, अर्थात् वाणीमें प्रत्येक अक्षर, पद और वाक्य स्पष्ट अलग अलग हो; ३४, अविच्छिन्न, मतलब वक्तव्य विषयों की युक्ति हेतु दृष्टान्तों से मिश्र वाणी; और ३५. अखेद, अर्थात् वाणी के प्रकाशन में परमात्मा को जरा भी बल, थकावट, श्रम, या परेशानी न हो एसी सहज गंगाप्रवाह की धारा समानवाणी । ९० Jain Education International · For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001721
Book TitleLalit Vistara
Original Sutra AuthorHaribhadrasuri
AuthorBhuvanbhanusuri
PublisherDivya Darshan Trust
Publication Year
Total Pages410
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Literature, & Religion
File Size11 MB
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