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(ल.)-नाशुद्धमपि जात्यरत्नं समानमजात्यरत्नेन । न चेतरदितरेण । तथा संस्कारयोगे सत्युत्तरकालमपि तद्भेदोपपत्तेः । न हि काचः पद्मरागी भवति, जात्यनुच्छेदेन गुणप्रकर्ष (प्र०..... र्षा) भावात् । इत्थं चैतदेवं, प्रत्येकबुद्धादिवचनप्रामाण्यात्, तद्भेदानुपपत्तेः । न तुल्यभाजनतायां तद्भेदो न्याय्य इति ।
(पं०)-अस्तु तीर्थंकरत्वहेतुबोधिलाभे भगवतामन्यासमानता, इतरावस्थायां तु कथमित्याशङ्क्य प्रतिवस्तूपमया साधयितुमाह 'न' = नैव, 'अशुद्धमपि' = मलग्रस्तमपि, 'जात्यरत्नं' = पद्मरागादि, 'समानं' =तुल्यम् 'अजात्यरत्नेन =काचादिना । शुद्धं सत् समानं न भवत्येवेति 'अपि' शब्दार्थः । न चेतरद्' इति, 'इतरद्' =अजात्यरत्नं, 'इतरेण' =जात्यरत्नेन । कुत इत्याह 'तथा' = अशुद्धावस्थायामसमानतायां सत्यां 'संस्कारयोगे' =शुद्धयुपायक्षारमृत्पुटपाकसंयोगे, 'उत्तरकालमपि' किं पुनः पूर्वकालमिति 'अपे'रर्थः, 'तभेदोपपत्ते', तयोः =जात्याजात्यरत्नयोः ('भेदोपपत्तेः' =) असादृश्यघटनात् । तद्भेदोपपत्तिमेव भावयति 'न हि काचः पद्मरागी भवति' संस्कारयोगेऽपीति गम्यते। हेतुमाह'जात्यनुच्छेदेन' =काचादिस्वभावानुल्लङ्घनेन, 'गुणप्रकर्षभावात्' = गुणानां कान्त्यादीनां वृद्धिभावात् । ('वृद्ध्यभावात्' इति च पाठः) । इदमेव तन्त्रयुक्तया साधयितुमाह इत्थं च'- इत्थमेव = जात्यनुच्छेदेनैव, चकारस्यावधारणार्थत्वात्। एतत्' = गुणप्रकर्षभावलक्षणं वस्तु, कुत इत्याह एवम्' = अनेन जात्यनुच्छेदेन गुणप्रकर्षभावलक्षणप्रकारेण । 'प्रत्येकबुद्धादिवचनप्रामाण्यात्' =प्रत्येकबुद्ध-बुद्धबोधित-स्वयंबुद्धादीनां पृथग्भित्रस्वरूपाणां 'वचनानि' = निरूपका ध्वनयः, तेषां प्रामाण्यम्' = आप्तोपदिष्टत्वेनाभिधेयार्थाव्यभिचारिभावः, तस्मात् । अस्यैव व्यतिरेकेण समर्थनार्थमाह 'तभेदानुपपत्तेः'। इह 'अन्यथा' शब्दाध्यारोपाद् ‘अन्यथा तद्भेदानुपपत्ते' रिति योज्यम् । तद्भेदानुपपत्तिमेव भावयति, 'न' =नैव, 'तुल्यभाजनतायां' = तुल्ययोग्यतायां, 'तभेदः' = प्रत्येकबद्धादिभेदो, 'न्याय्यो' = यक्तिसंगतः, 'इति' ।
देखते हैं कि जो सम्यक् शिक्षा पानेकी योग्यता नहीं रखते हैं उनमें, ऐसी योग्यतावाले जीवों को सम्यक् शिक्षा से जो गुण प्राप्त होते हैं, उनकी अपेक्षा विपरीत गुण देखते हैं। अगर ऐसा न हो अर्थात् विपरीत गुण न दिखाई देता हो तो जगत में ऐसे अयोग्य जीवों का अभाव ही हो जाए अर्थात् कोई ऐसा जीव ही न हो। लेकिन देखते तो हैं कि ऐसे जीव नहीं है वैसा नहीं, ऐसे तो कई हैं; इसमें किसी का विवाद नहीं है। तब यह स्पष्ट है कि शिक्षा देने पर भी गुण प्राप्त नहीं कर सकनेवालों में ऐसी उच्च योग्यता मूलमें ही नहीं है ; जैसे कि जातिमान अश्वों की उच्च योग्यता अन्य अश्वों में नहीं है। इस प्रकार अरिहंत बननेवाले जीवों के समान योग्यता सभी जीवों में नहीं है। अतः अरिहंत ही सहज परार्थव्यसनी आदि होते हुए पुरुषोत्तम हैं।
विशिष्टता बादमें हो, पहले क्यों ? :
प्र०-तीर्थंकरपन में कारणभूत बोधिलाभ जब प्राप्त हो उस अवस्था में तो उन भगवंतो में अन्यों की अपेक्षा असमानता यानी विशिष्टता हो, किन्तु पहली अवस्था में भी असमानता कैसे ? अन्यों के समान ये क्यों नहीं?
उ०- आपकी यह शङ्काका समाधान एक दूसरी वस्तु की उपमासे देखिए । जगत में जो पद्मरागादि नामक जात्यरत्न होता है वह जब खान में अशुद्ध मलग्रस्त अवस्था में होता है तब भी वह अजात्यरत्न काँच वगैरह के समान नहीं कहा जाता है, तब शुद्ध अवस्था में तो असमान होने में पूछना ही क्या ? इसी प्रकार
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