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अजात्यरत्न काँच वगैरह भी जात्यरत्न के समान नहीं होते हैं, क्यों कि उनके पर शुद्धि करने के उपायभूत क्षार, मिट्टी, संपुटमें तपन, इत्यादि के प्रयोग के उत्तर काल में भी अर्थात् शुद्धि प्रयोग के बाद भी वे काँचादि स्वरूप ही रहते हैं; इसलिए जात्यरत्न और अजात्यरत्न की असमानता तब भी बनी रहने से दोनों का मौलिक भेद सिद्ध होता है अर्थात् प्रयोग के पूर्व काल में भी अवश्य भेद है, असमानता है। अतः संस्करण-प्रयोग करने पर भी काँच कभी पद्मराग आदि मणि नहीं हो सकता। कारण, जगत में कान्ति आदि गुण का प्राकट्य और वृद्धि मूल जाति का उल्लंघन न करते हुए ही होता हैं। गधे को अश्व के समान कितनी ही शिक्षा दी जाए, किन्तु अपना असली गुण छोड कर कोई गुणविकास उसमें नहीं होगा, गधापन में योग्य ही विकास प्राप्त होगा। इस प्रकार काँच आदि में भी, मूल जाति रहते हुए ही विकास होगा।
प्रत्येकबुद्धादि शास्त्रदृष्टान्तःप्र०-शास्त्र में इसका कोई दृष्टान्त है ?
उ०- हां, शास्त्र में प्रत्येकबुद्ध, बुद्धबोधित, और स्वयंबुद्ध, जिनसिद्ध और अजिनसिद्ध, तीर्थसिद्ध और अतीर्थसिद्ध, इत्यादि भेद पाये जाते है; अर्थात् ऐसे भिन्न भिन्न स्वरूपवाले सिद्धों के प्रतिपादक शास्त्रवचन मिलते हैं; और वे वचन आप्त जनों के द्वारा कथित होने से प्रमाणभूत हैं; कथित वस्तुस्थिति के अव्यभिचारी अर्थात् अनुरूप हैं, विसंवादी नहीं है। यह इस प्रकार, -यदि कोई मनुष्य संसार का कोई प्रसङ्ग देख कर या कुछ निमित्त पाकर अपने आप ही चिंतन के द्वारा प्रतिबोध प्राप्त करता है और चारित्र (साधु दीक्षा) स्वीकार और पालन करके सिद्ध होता है यानी संसार से मुक्त होता है तो वह प्रत्येकबुद्ध कहा जाता है। और जो गुरु से प्रतिबोधित हो चारित्र द्वारा सिद्ध होता है वह बुद्धबोधित है। जब कि, जो जन्म से सहज ही विरक्त होने की वजह योग्य उम्र में स्वयं ही बुद्ध हो सिद्ध होता है वह स्वयंबुद्ध कहा जाता है। अब सोचिए कि कोई जीव इन तीनों में से कोई एक नियत प्रकार से बुद्ध क्यों होता है, और दूसरा जीव क्यों दूसरे प्रकार से बुद्ध होता है ? कहना होगा कि उस-उस जीव में पहले से वैसी वैसी ही योग्यता है, जिसे उल्लंघन न करके ही गुण विकास होते होते पृथक् पृथक् स्वरूपवाले प्रत्येकबुद्ध-सिद्ध आदि होते हैं। एवं जिनसिद्ध या अजिनसिद्ध, तीर्थसिद्ध या अतीर्थसिद्ध, इत्यादि भी भिन्न भिन्न स्वरूपवाले सिद्ध होते हैं। (जिन यानी तीर्थंकर हो कर सिद्ध हो वह जिनसिद्ध । जिन न होकर सिद्ध हो वह अजिनसिद्ध । एवं तीर्थंकर के द्वारा स्थापित किये हुए धर्मतीर्थ पाकर सिद्ध हो वह तीर्थसिद्ध; तीर्थस्थापन पूर्व ही सिद्ध हुए, जैसे कि मरुदेवा माता, वह अतीर्थसिद्ध ।) ये भेद आप्तकथित शास्त्र से प्रमाणित हैं; और वे भिन्न भिन्न योग्यताओं पर निर्भर हैं। इस बात का निषेधमुख से समर्थन करते कह सकते हैं कि वैसी वैसी योग्यता न होने पर वैसे भेद सङ्गत नहीं हो सकते; अर्थात् यदि समान योग्यता हो, तो इसके आधार पर एक प्रत्येकबुद्ध हो और दूसरा बुद्धबोधित हो, वैसा भेद होना युक्तियुक्त नहीं है।
सभी का, मोक्ष में भेद क्यों नहीं ? मृत्यु का दृष्टान्त :प्र०- यदि जीवों में ऐसा भेद सिद्ध है तब तो मोक्ष में भी भेद बना रहेगा? ऐसा है क्या?
उ०- नहीं, जीवों में यहां भेद सिद्ध होने के कारण, मोक्ष में भी जीवपन तो है ही, इसलिए वहां भी भेद होगा ऐसा नहीं । क्यों कि मोक्ष है ज्ञानावरण आदि समस्त कर्मो के नाश से अनन्तर होनेवाला कार्य; और वैसा कर्मनाश तो सभी मुक्त जीवों में एक सा हुआ है। फिर मोक्ष स्वरूप कार्य भी एक-सा ही होगा। अन्त में भेद न होने की यह वस्तु एक दूसरे पदार्थ में देखिए । समानों में तो पूछना हि क्या लेकिन निर्धन और धनिक जैसे भिन्नता वाले
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