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________________ (ल०)-न सर्व एव एवंविधाः, खडुङ्कानां व्यत्ययोपलब्धेः, अन्यथा खडुङ्काभाव इति । (प्रत्यन्तरे खुडुङ्क' पाठो लभ्यते) (पं०)-'न सर्वेत्यादि', 'न' = नैव, 'सर्व एव' सत्त्वाः, एवंविधाः' = भाविभगवद्भावसत्त्वसमाः, कुत इत्याह 'खडुकानां' = सम्यक् शिक्षानर्हाणां 'व्यत्ययोपलब्धेः' = प्रकृतविपरीतगुणदर्शनाद, व्यतिरेकमाह 'अन्यथा' =प्रकृतगुणवैपरीत्याभावे, 'खडुङ्काभावः' =खडुकानामुक्तलक्षणानामभावः, (प्रत्यन्तरयो: 'खुडुङ्क खुडङ्क' पाठः) स्वलक्षणस्यैव अभावात् (प्रत्यन्तरे 'भावात्' पाठः) न च न सन्ति ते, सर्वेषामविगानात् । अदृढानुशय :- जीवन में अपने प्रति कई प्रकार के अनिष्ट करनेवाले जीवों के संयोग आते हैं, लेकिन तीर्थंकरदेव की आत्मा उनके प्रति गाढ क्रोध, प्रबल अपकारबुद्धि, इत्यादि नहीं करती हैं। पुरुषोत्तम होने की यह उनकी एक अनादिसिद्ध विशिष्टता है। कृतज्ञतास्वामिता :- वे कृतज्ञता के स्वामी होते है। स्वामी उसे कहते हैं जिसे वस्तु वश है; उत्तम स्वरूप में प्राप्त है, एवं सदा स्थायी है। अर्हत् परमात्मा को कृतज्ञता वशवर्ती, उत्तम स्वरूप में प्राप्त, एवं सदा स्थायी होने के कारण वे कृतज्ञता के स्वामी कहे जाते हैं। अपने लिये कुछ भी उपकार करनेवालों का उपकार कभी भूलना नहीं परन्तु यथाशक्य प्रत्युपकार करना, यह उनका सहज गुण होता है। अनुपहचित्त :- वे सदा अभग्नोत्साह होते हैं। चित्त का उपघात यानी भङ्ग नहीं होने पाता, चाहे कितनी भी आपत्तियों क्यों न आवें । इस गुण के बल पर संयम-साधना में लगा हुआ चित्त कई भयङ्कर उपद्रव पर भी हतोत्साह नहीं होता है, और संयम के उच्च अध्यवसाय से भ्रष्ट होने नहीं पाता। देवगुरु-बहुमान :- जब उन्हें संसारावस्था में भीषण भवसमुद्र से पार करानेवाले देव और गुरु का प्रथम परिचय होता है तब से वे उन के प्रति अत्यन्त आदर निज हृदय में स्थापित करते हैं। वह आदर भी सक्रिय रहता है और तब से संसार पर से बहुमान-आस्था उठ जाती है। देव और गुरु, उन के मनमें, जीवन-सर्वस्व सा प्रतीत होते हैं। ___ गम्भीराशय:- अर्हत् प्रभु की आत्मा गम्भीर अभिप्राय वाली होती है। तुच्छ विचारणा, क्षुद्र मान्यता उछे छू नहीं पाती। फलतः उन की वाणी और प्रवृत्ति भी गम्भीर भावों से भरी हुई होती है। वे दूसरों दोषों के प्रति भी अपना हृदय गम्भीर रखते हैं। इन गुणोंकी सहज योग्यता परमात्मा की आत्मा में एसी चली आती है कि विकास के निमित्तों का थोडा सा सहयोग मिलने पर वे गुण विशिष्ट रूप में प्रादुर्भूत होते हैं। साहजिकविशिष्टता में युक्ति और दृष्टान्त : प्र०-अरिहंत प्रभु में ऐसी विशिष्ट योग्यता सहज रूपसे होने का प्रतिपादन आप करते हैं तो क्या सभी जीवों में यह नहीं हो सकती? उ०- नहीं, सभी जीव सहज रूप से, भावी अरिदंतपन पानेवाले जीवों के मुताबिक, ऐसी विशिष्ट योग्यता वाले दोते नहीं हैं। इसी लिए तो भविष्य में अरिहंत अमुक ही होते हैं, दूसरे मोक्ष भी प्राप्त करनेवाले जीव नहीं।।फर समा जीवों में तीर्थंकर के समान योग्यता कैसे कहा जा सके ? इसका दृष्टान्त यह है, जगत में हम AR Y ८० NAINITIANE Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001721
Book TitleLalit Vistara
Original Sutra AuthorHaribhadrasuri
AuthorBhuvanbhanusuri
PublisherDivya Darshan Trust
Publication Year
Total Pages410
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Literature, & Religion
File Size11 MB
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