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बौद्धमत के निराकरणार्थ अरिहंत परमात्मा की विशेषता कहते हैं 'पुरिसुत्तमाणं'-पुरुषोत्तम के प्रति नमस्कार हो । अरिहंत परमात्मा विशिष्ट योग्यता के बल पर पुरुषोत्तम हैं।
'पुरुष' शब्द का अर्थ है, पुर् में शयन करनेवाला, अर्थात् शरीरमें रहनेवाला । ऐसा है जीवमात्र; तब पुरुष का अर्थ जीव हुआ। जीवों के बीच वे सहज तथाभव्यत्वादि भाव के द्वारा प्रधान है, यही है पुरुषोत्तम ।
प्रधानता इस प्रकार है :- अनादि काल से अरिहंत परमात्माओं के जीव परार्थ के व्यसनी होते हैं, स्वार्थ को गौण करनेवाले एवं उचित क्रियाशाली होते हैं, दीनता से रहित, और सफल प्रयत्न करने वाले होते हैं। अपकारी के प्रति भी निबिड अपकार-बुद्धि जिनकी नहीं है वैसे वे होते हैं। तथा कृतज्ञता के स्वामी और सदा अभग्न चित्तवाले होते हैं । एवं देव-गुरु के प्रति बहुमान करनेवाले तथा गंभीर आशय वाले होते हैं।
प्र०- निगोद आदि एकेन्द्रिय अवस्था में परार्थव्यसनिता प्रमुख गुण उन में कहां दिखाई देते हैं ? (निगोद कहते हैं साधारण वनस्पतिकाय शरीर को जिसमें अनंत जीव रहते हैं)
उ०- ठीक है परार्थव्यसन आदि गुण दीखते नहीं, फिर भी इनकी स्वरूपयोग्यता है। सामग्री के अभाव की वजह से प्रगटरूप में वे नहीं दिखाई देते हैं । इसका यह अर्थ नहीं कि उन गुणों की सहज योग्यता नहीं है। कारण यह है कि जब अन्य जीवों में परार्थव्यसनिता आदि गुणों का समूह उपदेश वगैरह निमित्त के बल पर प्राप्त होता है, तो तीर्थंकर की आत्मा में वे गुण अपनी योग्यता के आधार पर प्रगट होते हैं। इसीका अर्थ यह है कि वे सहज रूप से भीतर पडे हैं। किस प्रकार भीतर पडे हैं इसका विचार करने के पूर्व परार्थव्यसनिता आदि का कुछ स्वरूप देखें।
परार्थव्यसनिता :- विश्व के सभी प्राणी जब मात्र स्वार्थरसिकता में डूबे हुए हैं, तब तीर्थंकर की आत्मा जीवन में स्वार्थ को गौण कर प्रधान रूप से परार्थव्यसन यानी परहितरसिकता रखती है। व्यसन वही है जो बारबार किया जाय, कई प्रयत्न करने पर भी उसका रस बना रहे; करने का न मिले तो चैन न पड़े; अन्य कार्य में इतना रस न रहे.... इत्यादि । अर्हत् प्रभु की आत्मा में अनादिकालीन सहज विशिष्ट योग्यतावश परहित का व्यसन होता है।
___ स्वार्थगौणता :- कई पुरुषों में परोपकारका रस रहने पर भी स्वार्थ की भी मुख्यता रहती है, जब कि परमात्मा में स्वार्थसाधना उपसर्जन भाव से अर्थात् गौण भाव से रहती है। अपनी दृष्टि और अभिलाषा जितनी परोपकार पर केन्द्रित होती है उतनी स्वार्थ पर नहीं, अपना रस जितना परहितसाधना में रहता है, उतना स्वार्थसाधना में नहीं । अतः जब निजी कार्य करते समय यानी स्वार्थ साधते समय भी दूसरों का भला करने में सावधान रहते हैं, तब पीछे अवकाश मिलने पर तो परोपकार-साधने का पूछना ही क्या?
उचित क्रिया :- वे जीवन में उचित कर्तव्य-पालन का स्वभाव रखते हैं। कहीं भी औचित्यका भंग नहीं करते हैं। समस्त प्रसङ्ग एवं प्रवृत्तियों में औचित्य का पालन करते हैं। जीवन का यह एक अद्भुत वैशिष्ट्य है। अन्य जीवात्माओं के जीवन की अपेक्षा उचित प्रवृत्तियों से भरा हुआ उनका जीवन पुरुषोत्तमता का द्योतक है।
अदीनभाव :- तीर्थंकर की आत्मा दुन्यवी सुख-संपत्ति में ऐसी लंपट नहीं होती कि जिस से दूसरों के सामने दीन बनना पडे, दूसरों की चापलुसी करनी पडे। उन के स्वभाव में दीनता नहीं होती है।
सफलारंभ :- वे कार्य का प्रारंभ भी अन्तिम परिणाम को समझकर करते हैं ताकि परिश्रम निष्फल न हो। यह सफल प्रवृत्ति भी सहज भावसे ही होती है।
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