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________________ ६. पुरिसुत्तमाणं (सर्वजीवसमानवादि-बौद्धमतम्:-) . (ल०-) एते च सर्वसत्त्वैवंभाववादिभिबौद्धविशेषैः सामान्यगुणत्वेन न प्रधानतयाङ्गीक्रियन्ते, 'नास्तीह कश्चिदभाजनः (नं) सत्त्वः' इति वचनात् । (पं०) 'सर्वसत्त्वे' त्यादि, 'सर्वसत्त्वानां' = निखिलजीवानाम् ‘एवंभावं' = विवक्षितैकप्रकारत्वं, ('वादिभि':=) वदन्तीत्येवंशीलास्तैः, 'बौद्धविशेषैः' सौगतभेदैः, वैभाषिकैरिति सम्भाव्यते, तेषामेव निरुपचरितसर्वास्तित्वाभ्युपगमात् । ('सामान्यगुणत्वेन') 'सामान्याः' = साधारणाः 'गुणाः' = परोपकारकरणादयः, येषां ते तथा तद्भावस्तत्त्वं तेन, 'न' = नैव, 'प्रधानतया' =अतिशायितया, 'अङ्गीक्रियन्ते' = इष्यन्ते । कुत इत्याह 'नास्ति' = न विद्यते, 'इह' = लोके, 'कश्चिन्' नरनारकादिः, 'अभाजनो' (नम्)' = अपात्रम्, अयोग्य इत्यर्थः 'सत्त्वः' = प्राणी, 'इति वचनात्' = एवंरूपाप्तोपदेशात् ।। (ल.)-(जैनमतप्रत्युत्तरः) तदेतन्निराचिकीर्षयाह 'पुरुषोत्तमेभ्यः (पुरिसुत्तमाणं) 'इति । पुरि शयनात् 'पुरुषाः', सत्त्वा एव; तेषाम् 'उत्तमाः' सहजतथाभव्यत्वादिभावतः प्रधानाः पुरुषोत्तमाः ॥ तथा हि, आकालमेते परार्थव्यसनिन, उपसर्जनीकृतस्वार्था, उचितक्रियावन्त, अदीनभावाः, सफलारम्भिणः, अदृढानुशयाः, कृतज्ञतापतयः, अनुपहतचित्ताः, देवगुरुबहुमानिनः, तथा गम्भीराशया इति । (पं०) 'पुरुषोत्तमेम्य' इति । 'अदृढानुशया' इति, 'अदृढः' = अनिबिडोऽपकारिण्यपि, 'अनुशयः' =अपकारबुद्धिः, येषां ते तथा।। इस रीति से आदिकर्ता में तीर्थकरता होने से एवं अन्यों की अपेक्षा असाधारण स्वयंसंबोध होने से यह संपद् स्तोतव्यसंपद् की,- यानी नमस्कार सहित श्री अर्हद् भगवंत के दो पदों की, संपद् की प्रधान साधारणअसाधारण हेतुसंपद् हुई। क्यों कि अर्हत् प्रभु स्तुतिपात्र होने में ये तीन हेतु हैं। ६. पुरिसुत्तमाणं सर्व जीवों को योग्य माननेवाले बौद्धों का कथन : अब ऐसे बौद्ध हैं जो कि तीर्थंकर को अन्यों की अपेक्षा अतिशय वाले अर्थात् विशिष्ट योग्यतावाले मानने को तैयार नहीं है; वे तो उन्हें अन्य जीवों के समान परोपकारादि साधारण गुणवाले मानते हैं। ऐसे बौद्ध, संभवित है शायद, 'वैभाषिक' नाम के बौद्ध हो; क्यों कि उन्हीं के मतमें ही सभी का अस्तित्व समान प्रधानतायुक्त यानी किसी में विशिष्ट योग्यता नहीं ऐसा अस्तित्व स्वीकृत किया गया है। वे कहते हैं कि सभी जीव विवक्षित एक ही प्रकार के होते हैं। अर्थात् प्रस्तुत में तीर्थंकरता की योग्यता वाले कहें तो ऐसे समस्त जीव है। वे योग्य प्रयत्न करके तीर्थंकर बन सकते हैं। उन के आप्त जनका उपदेश है कि 'नास्तीह कश्चिदभाजनं सत्त्व:'लोक में कोई ऐसा मनुष्य-नारकादि जीव नहीं है जो कि अपात्र है, अयोग्य है। जैनमतका प्रत्युत्तर: “पुरुषोत्तम' का अर्थ : Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001721
Book TitleLalit Vistara
Original Sutra AuthorHaribhadrasuri
AuthorBhuvanbhanusuri
PublisherDivya Darshan Trust
Publication Year
Total Pages410
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Literature, & Religion
File Size11 MB
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