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पकाया? लाक्षारस से कापुसको रंगा? इन वाक्यों में कर्म क्रियायोग्य ही नहीं है, अतः यहां इन कर्मो में शिक्षणपचन-रंगन की कोई क्रिया ही नहीं है; कारण, क्रिया के फल से वे परिणत ही नहीं हुए । क्रियाएँ एक श्रममात्र हैं।
समस्त लोगों में यह प्रसिद्ध है कि फलको संपादन न करनेवाली क्रिया एक प्रयासमात्र यानी श्रमदायी नाममात्र क्रिया होती है, सच्ची क्रिया नहीं।
. प्र०- दूसरों के द्वारा की गई क्रिया इस प्रकार नाममात्र क्रिया हो, किन्तु सदाशिव की अनुग्रह क्रिया नाममात्र क्रिया नहीं, क्यों कि वह तो अचिन्त्य शक्तिसंपन्न है, ऐसा क्यों न माना जाए?
उ०- ध्यान में रखिए कर्ता की क्रिया का कर्म योग्य न होने पर क्रिया अक्रिया ही है, नाममात्र की क्रिया है निष्फल क्रिया ही है, यह नियम निरपवाद और सर्वत्र सभी क्रियाओं में जगप्रसिद्ध है। इसीलिए तो मोक्ष के अयोग्य ऐसे अभव्य जीव पर सदाशिव का अनुग्रह नहीं हो सकता है। यदि योग्यता विना भी, अर्थात् योग्यताअयोग्यता न देखते हुए, सदाशिव अनुग्रह करते हों, तो वे अभव्य के उपर भी अनुग्रह करें? करते तो हैं नहीं, क्यों कि तब तो सभी अभव्य पर अनुग्रह हो जाने से सभी का मोक्ष हो जाए ! कारण कि अभव्यत्व तो सबमें समान है। इतना ही नहीं विश्वमें सभी अयोग्य वस्तुओं पर भी अनुग्रह हो, क्यों कि अयोग्यता तो समान है। तब ऐसा भेद क्यों, कि अयोग्यता समान होने पर भी एक के उपर अनुग्रह होवे दूसरे के उपर नहीं ? इसलिए यह मननीय है कि सर्वत्र ही फल पाने में प्रधान कारण अपनी योग्यता है; सदाशिवका अनुग्रह नहीं।
तीर्थंकर और अतीर्थंकर के सम्यग्दर्शनादि में तारतम्य:प्र०- यहां ऐसा कहा गया कि तीर्थंकर स्वयं वरबोधि प्राप्त कर संबुद्ध हुए, तो वरबोधि क्या है?
उ०- 'बोधि' शब्दका अर्थ सम्यग्दर्शनादि मोक्षमार्ग है। 'वर' माने श्रेष्ठ, अर्थात् विशिष्ट, यानी अन्य मोक्षगामी जीवों के बोधि से भिन्न प्रकार का । तब वरबोधि अतीर्थकर जीवों की अपेक्षा विशिष्ट सम्यग्दर्शनादि स्वरूप हुआ।
प्र०- तो क्या दोनों के बोधि में तारतम्य है?
उ०- हां, तीर्थकर और अतीर्थकर के विभूति-अतिशयादि में तो तारतम्य हो, किन्तु बोधि में भी तारतम्य युक्तियुक्त है। युक्ति यह है कि जो एक सामान्य और दूसरा विशिष्ट कार्य है, उन दोनों के पारंपरिक अर्थात् दूर के कारणों में परस्पर भेद यानी तारतम्य होना आवश्यक है। क्यों कि उन कारणों में अगर भेद न हो, तो उनके कार्यों में, एक तो विशिष्ट और दूसरा सामान्य, ऐसा भेद नही बन सकता। अब देखिए कार्यभेद कैसा, -तीर्थंकर भगवान का बोधिलाभ परंपरा से अर्थात् अनेक भवों के बाद जा कर तीर्थकरत्व के निर्माण करनेका स्वभाववाला है, न कि मरुदेवी प्रमुख अन्तकृत् केवलज्ञान वालों के बोधिलाभ की तरह तीर्थंकरता-सर्जन के स्वभावशून्य। अन्तकृत् केवलज्ञानवाले उन्हें कहते हैं जिनका केवलज्ञान तुरन्त ही अन्त यानी मोक्ष करता है। यदि तीर्थंकर का बोधिलाभ उस स्वभाव से शून्य होता तो जिस प्रकार अन्तकृत् केवलज्ञानी के बोधिलाभ से तीर्थंकरता निर्मीत नहीं होती है, इसी प्रकार तीर्थंकरके आत्मा के बोधिलाभ से भी वह सिद्धि न होती।
अतः सिद्ध होता है कि तीर्थंकर का बोधिलाभ तीर्थकरता-जनन के स्वभाववाला होने से दूसरों के बोधिलाभ की अपेक्षा एक विशिष्ट कोटि का है, जो कि 'वरबोधि' कहा जाता है। इस प्रकार स्वयंसंबुद्धता की सिद्धि हुई।
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