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(जैनमतप्रत्युत्तर :)
(ल.)-एतद्व्यपोहायाऽऽह स्वयंसंबुद्धेभ्यः' तथाभव्यत्वादिसामग्री-परिपाकतः प्रथमसम्बोधेऽपि स्वयोग्यताप्राधान्यात् त्रैलोक्याधिपत्यकारणाचिन्त्यप्रभावतीर्थकरनामकर्मयोगेचापरोपदेशेन 'स्वयं'आत्मनैव सम्यग्वरबोधिप्राप्त्या 'बुद्धाः' मिथ्यात्वनिद्रापगमसंबोधेन स्वयंसम्बुद्धाः । न वै कर्मणो योग्यताऽभावे तत्र क्रिया क्रिया, स्वफलाप्रसाधकत्वात्, प्रयासमात्रत्वात् अश्वमाषादौ शिक्षापक्त्याद्यपेक्षया ।
(पं०)-'तथे' त्यादि, 'तथा' तेन प्रकारेण प्रतिविशिष्टं भव्यत्वमेव तथाभव्यत्वम् । आदिशब्दात् तदन्यकालादिसहकारिकारणपरिग्रहः, तेषां 'सामग्री' = संहतिः, तस्या यः ‘परिपाकः' = विपाकः, अव्याहता स्वकार्य करणशक्तिः, तस्मात् । 'प्रथमसम्बोधेऽपि' =प्रथमसम्यकत्वादिलाभेऽपि, कि पुनस्तीर्थकरभवप्राप्तावपरोपदेशेनाप्रथमसम्बोध इति ‘अपि' शब्दार्थः, स्वयंसंबुद्धा इति योगः । कुत इत्याह, 'स्वयोग्यताप्राधान्यात्' =स्वयोग्यताप्रकर्षो हि भगवतां प्रथमबोधे प्रधानो हेतुः, लूयते केदारः स्वयमेवेत्यादाविव केदारादेर्लवने। 'न वै' इत्यादि, 'न वै' = नैव, 'कर्मणः' = क्रियाविषयस्य कर्मकारकस्येत्यर्थो, 'योग्यताऽभावे' =क्रियां प्रति विषयतया परिणतिस्वभावाभावे, 'तत्र' = कर्मणि, 'क्रिया' =सदाशिवानुग्रहादिका, क्रिया भवति, किन्तु ? क्रियाभासैव, कुत इत्याह, 'स्वफलाप्रसाधकत्वाद्' =अभिलषितबोधादिफलाप्रसाधकत्वाद्; एतदपि कुत इत्याह, 'प्रयासमात्रत्वात्' क्रियाः । कथमेतत्सिद्धमित्याह 'अश्वमाषादौ' कर्मणि, आदिशब्दात् कर्पासादिपरिग्रहः, 'शिक्षापक्त्याद्यपेक्षया' शिक्षा, पक्तिम्, आदिशब्दाल्लाक्षारागादि वाऽपेक्ष्य ।
(ल०)-सकललोकसिद्धमेतद्, इति नाभव्ये सदाशिवानुग्रहः, सर्वत्र तत्प्रसङ्गात्, अभव्यत्वाविशेषादिति परिभावनीयम् । भी बोधहेतु महेशानुग्रह अपेक्षित है, फिर वे स्वयंबुद्ध कैसे हो सकते ? - यह वादी का तात्पर्य है।
जैनमतका प्रत्युत्तर :
महेशानुग्रहवादी के इस मत का निराकरण करने के लिए श्री अर्हत् परमात्मा को विशेषण दिया 'स्वयंसंबुद्ध', अर्थात् स्वयं बोध प्राप्त करनेवाले । तथाभव्यत्व आदि के अर्थात् उस उस प्रकार अपने विशिष्ट भव्यत्व आदि सामग्री के विपाक वश, तीर्थंकर भव में तो क्या, किन्तु इसके पूर्व भवमें प्रथम सम्यग्दर्शन प्राप्त करनेमें भी अन्य के उपदेश की नहीं किन्तु स्वयोग्यता की प्रधानता से ही संबुद्ध होने वाले; आप ही आप सम्यग् वरबोधि को प्राप्त कर मिथ्यात्वरूप निद्रा के त्याग द्वारा सम्यक् तत्त्वदर्शन और आत्म-जाग्रति द्वारा संबुद्ध होने वाले। तीर्थंकर के भवमें तो अचिन्त्य प्रभावशाली एवं त्रैलोक्य के आधिपत्य में कारणभूत ऐसे तिर्थंकर-नामकर्म के योग से किसी के उपदेश विना स्वयं संबुद्ध होते ही है। तात्पर्य, भगवान को प्रथम बोध होने में अपनी योग्यता का उत्कर्ष प्रधान हेतु है; जैसै कि पौधे के काटने में कहा जाता है कि पौधा दूसरों से क्या कटता हैं, अपने आप ही कट जाता है; इतना वह कोमल है। यहां काटने वाले को कोई कठिनाई न होने से इस के प्रयत्न की विशेषता नहीं, पौधे को कट जाने की जो योग्यता है उसी की विशेषता है। इसी प्रकार तीर्थंकर की आत्मा को प्रथम संबोध प्राप्त कराने में उपदेशक को कोई कठिनाई नहीं वहां तो अपनी योग्यता का विशिष्ट्य है।
प्र०-- यह कैसे? उन्हें गुरु उपदेश तो करते हैं न !
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