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धन्यवाद देना होगा। यह सब उनकी निष्ठा, लगन एवं परिश्रमका ही फल है जिससे कि यह ग्रन्थ यथाशीघ्र सम्पन्न होकर प्रेसमें जा सका है।
अपने अनन्य मित्रोंमें मैं श्री प्रो. दिनेन्द्रचन्दजी जैन, आरा, श्री प्रो. डॉ. रामनाथ पाठक 'प्रणयी' तथा प्रो. पुण्डरीक राव बागरे, मैसूरके प्रति भी अपना आभार व्यक्त करता हूँ, जिन्होंने समय-समयपर मुझे यथेच्छ सहायताएँ एवं अनेक उपयोगी तथा महत्त्वपूर्ण सुझाव दिये हैं। परिशिष्ट सं. २ ( क-ख) तो प्रो. जैन साहबकी ही जिज्ञासा एवं प्रेरणाका परिणाम है। उनके आग्रहवश ही १०वीं सदीसे १७वीं सदीके मध्यमें लिखित प्रमुख महावीर-चरितोंके पारस्परिक वैशिष्ट्य-प्रदर्शन-हेतु दो तुलनात्मक मानचित्र तैयार किये गये हैं। सामान्य पाठकों एवं शोधार्थियोंके अध्ययन-कार्यों में उनसे अवश्य ही सहायता मिलेगी, ऐसा मुझे विश्वास है। मैं इन सभी मित्रोंके प्रति अपना आभार व्यक्त करता हूँ।
सुविधा एवं मुद्रणकी शीघ्रताको ध्यानमें रखते हुए प्रफ-संशोधनकी, आदिसे अन्त तक सारी व्यवस्था भारतीय ज्ञानपीठने स्वयं करके मुझे उसको चिन्तासे मुक्त रखा है। इस कृपाके लिए मैं ज्ञानपीठका सदा आभारी रहूंगा।
सन्मति मुद्रणालयके वर्तमान व्यवस्थापक श्री सन्तशरण शर्मा एवं पं. महादेवजी चतुर्वेदी तथा अन्य कार्यकर्ताओंके सहयोगको भी नहीं भुलाया जा सकता, क्योंकि उन्हींकी तत्परतासे यह ग्रन्थ नयनाभिराम बन सका है। अप्रकाशित हस्तलिखित ग्रन्थोंके सर्वप्रथम सम्पादनमें सावधानी रखनेपर भी कई त्रुटियोंका रह जाना बिलकुल सम्भव है। यह निःसंकोच स्वीकार करते हुए विद्वान् पाठकोंसे इस ग्रन्थको त्रुटियोंके लिए
मा-याचना कर उनसे सझावोंकी आकांक्षा करता है। प्राप्त सुझावोंका सदुपयोग आगामी संस्करणमें अवश्य किया जायेगा। अन्तमें मैं डॉन कार्लोजकी निम्न पंक्तियोंका स्मरण कर अपने इस कार्यसे विश्राम लेता हैं :
Nothing would ever be written, if a man waited till he could write it so well that no reviewer could find fault with it.
महाजन टोली नं.२ आरा (बिहार) १०.७.७५
-राजाराम जैन
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