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________________ प्रस्तावना २५. हस्तलिखित ग्रन्थोंके सम्पादनको कठिनाइयां तथा भारतीय ज्ञानपीठके स्तुत्य-कार्य हस्तलिखित अप्रकाशित ग्रन्थोंका सम्पादन-कार्य बड़ा ही कष्टसाध्य, समयसाध्य एवं धैर्यसाध्य होता है। मूल प्रतियोंके उपलब्ध करनेकी भी बड़ी समस्या रहती है, फिर उनका प्रतिलिपि-कार्य, पाठसंशोधन, पाठान्तर-लेखन तथा हिन्दी अनुवाद आदिके करने में जिन कठिनाइयोंका सामना करना पड़ता है, उन्हें भुक्तभोगी ही अनुभव कर सकता है। मूल प्रतिका प्रतिलिपि-कार्य तो इतना दुरूह है कि उसमें चाहकर भी सामान्य जन किसी भी प्रकारको सहायता नहीं कर सकते। इसका कारण यह है कि भारतमें अभी हस्तलिखित ग्रन्थोंके सम्पादन-कार्यमें न तो लोगोंकी अभिरुचि जागृत करायी गयी है और न ही वह कार्य श्रेण्य-कोटि में गण्य हो पाया है। यही कारण है कि हस्तलिखित ग्रन्थोंके रूपमें हमारा प्राचीन-गौरव शास्त्र-भण्डारोंमें बन्द रहकर अपने दुर्भाग्यको कोसता रहता है। क्या ही अच्छा होता कि विश्वविद्यालयों के प्राच्य-विद्या विभागोंमें प्राचीन हस्तलिखित ग्रन्थोंके सम्पादनकी कलाका अध्ययन-अध्यापन भी कराया जाये। इससे इस क्षेत्रमें कुछ विद्वान भी प्रशिक्षित हो सकेंगे तथा देशके कोने-कोने में जो अगणित गौरवग्रन्थ उपेक्षित रहकर नष्ट-भ्रष्ट होते जा रहे हैं, उनके प्रकाशनादि होनेके कारण उनकी सुरक्षाकी स्थायी व्यवस्था भी हो सकेगी। भारतीय ज्ञानपीठने इस दिशामें कुछ अनुकरणीय कार्य किये हैं, किन्तु अकेली एक ही संस्था यह महद् कार्य पूर्ण नहीं कर सकती। यह कार्य तो सामूहिक रूपमें राष्ट्रीय-स्तर पर होना चाहिए। अस्तु! २६. कृतज्ञता-ज्ञापन __ प्रस्तुत ग्रन्थके सम्पादन-कार्यमें मुझे जिन सज्जनोंको सहायताएँ प्राप्त हुई हैं, उनमें मैं सर्वप्रथम भारतीय ज्ञानपीठके महामन्त्री श्रद्धेय बाबू लक्ष्मीचन्द्रजी जैनके प्रति अपनी कृतज्ञता ज्ञापित करता हूँ, जिन्होंने इस ग्रन्थके सम्पादनका कार्य मुझे सौंपा तथा उसकी हस्तलिखित मूलप्रतियोंको उपलब्ध कराने में सतत प्रयत्नशील रहे । जीर्ण-शीर्ण अप्रकाशित हस्तलिखित ग्रन्थोंके उद्धार एवं उनके शीघ्र प्रकाशनके प्रति गहरी चिन्ता साहित्य-जगतके लिए वरदान है। उनके निरन्तर उत्साह-वर्धन एवं खोज-खबर लेते रहनेके कारण ही यह ग्रन्थ तैयार हो सका है अतः उनके सहज स्नेह एवं सौजन्यका स्मरण करते हुए मैं उनके प्रति अपना आभार व्यक्त करता हूँ। प्राकृत, अपभ्रंश एवं संस्कृत-साहित्यके क्षेत्रमें प्रो. डॉ. ए. एन. उपाध्ये अपना विशिष्ट स्थान रखते हैं। उन्होंने अपनी दैवी-प्रतिभासे विविध शोधकार्यों एवं हस्तलिखित ग्रन्थोंकी सम्पादन-कलामें कई मौलिक परम्पराएं स्थापित कर साहित्य-जगतको चमत्कृत किया है । इस ग्रन्थके सम्पादनमें मुझे उनसे समय-समयपर निर्देश मिलते रहे हैं। उनके लिए मैं आदरणीय डॉ. साहबके प्रति अपनी सात्त्विक श्रद्धा व्यक्त करता हूँ। श्रद्धेय अगरचन्दजी नाहटा, बीकानेर तथा पं. हीरालालजी शास्त्री (अध्यक्ष, ऐलक प. दि. जैन सरस्वती भवन) ब्यावरके प्रति भी मैं अपना आभार व्यक्त करता हूँ, जिनकी सत्कृपा एवं सौजन्यसे मुझे पूर्वोक्त मूल प्रतियाँ अध्ययन हेतु उपलब्ध हो सकी। मूलप्रतिको प्रतिलिपि, उसके पाठान्तर-लेखन तथा शब्दानुक्रमणिका तैयार करनेमें हमारी सहधर्मिणी श्रीमती विद्यावती जैन एम. ए. ने गृहस्थीके बोझिल दायित्वोंका निर्वाह करते हए भी अथक परिश्रम किया है। इसी प्रकार अनुवाद आदिकी प्रेस-कॉपी तैयार करने में चि. शारदा जैन बी. ए. (ऑनर्स), चि. राजीव एवं बेटी रश्मिने पर्याप्त सहायताएं की हैं। ये सभी तो मेरे इतने अपने हैं कि इन्हें धन्यवाद देना अपनेको ही Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001718
Book TitleVaddhmanchariu
Original Sutra AuthorVibuha Sirihar
AuthorRajaram Jain
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1975
Total Pages462
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Story, Literature, & Religion
File Size9 MB
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