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________________ वट्टमाणचरिउ राजा मनमानी एवं प्रजाजनों पर अत्याचार करता था, तब प्रजा उसकी राजगद्दी छीन लेती थी तथा अन्य योग्य व्यक्तिको उसपर प्रतिष्ठित करती थी ( ३३१६१९-१२)। २. राज्यके अंग मानसोल्लास ( अनुक्र० २० ) में राज्यके ७ अंग माने गये हैं-स्वामी, अमात्य, सुहृद्, कोष, राष्ट्र, दुर्ग एवं बल । कवि श्रीधरने भी सप्तांग-राज्यकी कल्पना की है। उसके अनुसार राजा ही राज्यका स्वामी कहलाता था। उसके कार्य और गुण पीछे वर्णित हो चुके हैं। अमात्यको उसने स्वर्ग-अपवर्गके नियमोंको जाननेवाला ( ३।७!६ ), स्पष्टवक्ता ( ३।७।१४, ३८), नय-नीतिका ज्ञाता ( ३।८।५ ), भाषणमें समर्थ ( ३।९।१२), महामतिवाला ( ३।१।१२), सद्गुणोंकी खानि ( ३।९।१३), धर्मात्मा (३।१२।११), सभी कार्योंमें दक्ष एवं सक्षम ( ३।१२।९) एवं धीर ( ३।१२।११) होना आवश्यक माना है। इस अमात्यके लिए श्रीधरने मन्त्री सामन्त ( २०१५ ) एवं पुरोहित ( २०१५ ) शब्दके भी प्रयोग किये हैं। सुहृद् अथवा सन्मित्रके विषयमें कहा गया है कि उसे गुणगम्भीर तथा विपत्ति कालमें उचित सलाह देनेवाला होना चाहिए । ( २१११५)। कोषका अर्थ कविने राष्ट्रकी समृद्धि एवं प्रजाजनोंके सर्वांगीण सुखोंसे लिया है। संचिय पवर-वित्तु ( ९।३।८ ), मणिचिन्तिय करुणय कप्परुक्खु ( १।५।१०), तं जि वित्तु पूरिय गिरि-कंदर ( २।२।७), चंचल लच्छी हुव णिच्चल ( २।२।५ ), आदि पदोंसे कविका वही तात्पर्य है। ___कविने राजा नन्दनको शक्तित्रयसे अपनी 'नृपश्री' के विस्तार ( २।२।१० ) करने सम्बन्धी सूचना दी है । शक्तित्रयमें कोष, सैन्य और मन्त्र-ये तीन शक्तियां आती हैं। प्रतीत होता है कि कोष-शक्तिका विभाग राजा स्वयं अपने हाथमें ही रखता था । इस कोषकी अभिवृद्धि करों (Taxes) (९।३।६, १५, ३।२४।८) के माध्यम तथा विजित शत्रुओंके कोषागारोंसे की जाती थी। कौटिल्य अर्थशास्त्रके अनुसार शुल्क, दण्ड, पौलव, नगराध्यक्ष, लक्षणाध्यक्ष, मुद्राध्यक्ष, सुराध्यक्ष, शूनाध्यक्ष, सूत्राध्यक्ष, स्वर्गाध्यक्ष, एवं शिल्पी आदिसे वसूल किया जानेवाला धन 'दुर्ग' कहलाता था । . कविने सामान्यतया शुल्क ( ३२४६८, ९।३।६, ९।३।१५, ) के वसूल किये जानेके उल्लेख किये हैं। अतः यह स्पष्ट विदित नहीं होता कि किस वर्गसे, किस प्रकारका और कितना शुल्क वसूल किया जाता था। 'राष्ट्र' के अन्तर्गत कृषि, खनि, व्यापार ( जलीय एवं स्थलीय) तथा भूमिके उत्पादन आदिकी गणना होती थी। कविने यथास्थान इनका वर्णन किया है। ३. तीन बल जैसा कि पूर्व में कहा जा चुका है कि 'बल' को कवि श्रीधरने 'शक्ति' कहा है तथा उसके तीन भेद किये हैं। मन्त्रशक्ति, कोषशक्ति और सैन्यशक्ति । वस्तुतः यही तीन शक्तियाँ 'राष्ट्र' मानी जाती थीं। राष्ट्रको सुरक्षा, अभिवृद्धि एवं समृद्धि उक्त तीन शक्तियोंके बिना सम्भव नहीं थी। अतः कविने इनपर अधिक जोर दिया है। प्रथम दोकी चर्चा तो पूर्व में ही हो चुकी है। उसके बाद तीसरी शक्ति है-सैन्य अथवा बल-शक्ति । शत्रओंपर चढ़ाई करके तथा दिग्विजय-यात्राएं करके राजा अपने राज्यका विस्तार किया करता था। इसके लिए उसके यहाँ 'चउरंगबल' (चतुरंगिणी सेना) अर्थात् पदातिसेना, रथसेना, अश्वसेना, और गजसेना रहती थी (२।१४।४)। १. दे. २२।६।१-५। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org .
SR No.001718
Book TitleVaddhmanchariu
Original Sutra AuthorVibuha Sirihar
AuthorRajaram Jain
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1975
Total Pages462
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Story, Literature, & Religion
File Size9 MB
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