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________________ ४. गुप्तचर एवं दूत प्रस्तावना आचार्य जिनसेन ने अपने महापुराण ( ४।१७० ) में गुप्तचरोंको राजाका नेत्र कहा है । यथाचक्षुश्चारो विचारश्च तस्यासीत्कार्यदर्शने । चक्षुषी पुनरस्यास्य मण्डने दृश्यदर्शने ॥ 'वड्ढमाणचरिउ' में विद्याधर हयग्रीव एवं राजा प्रजापतिके अनेक गुप्तचरोंकी चर्चा की गयी है, जो परस्परमें एक-दूसरेके राज्य के रहस्यपूर्ण कार्यों तथा महत्त्वपूर्ण स्थलोंकी सूचना अपने-अपने राजाओं को दिया करते थे । विशाखभूतिके कीर्तिनामक मन्त्रीने युवराज विश्वनन्दिके कार्यकलापों की जांच के लिए अपना चर नियुक्त किया था ( १।७।११ ) । इसी प्रकार विद्याधर राजा ज्वलनजटी अपनी कन्या स्वयंप्रभाका विवाह सम्बन्ध करनेका इच्छुक होकर राजा प्रजापतिके यहाँ अपना चर ही भेजता है, जिससे राजा प्रजापति, उसके परिवार एवं राज्यकी भीतरी एवं बाहरी स्थितियोंका सही पता लगाकर लौट सके ( ३ । २९ ) । त्रिपृष्ठने अपने शत्रुके सैन्यबल तथा युद्धकी तैयारियाँ देखने हेतु अवलोकिनी देवीको भेजा था । यह अवलोकिनी देवी वस्तुतः गुप्तचर ही थी । कवि कहता है । संपेसिय अवलोयणिय-नाम देक्खण-निमित्त परबलहा सावि देवी हरिणा संजणिय काम । तक्खण- निमित्त संपत्त धावि ॥ Jain Education International १९ - वड्ढमाण ५।९८-९ कौटिल्य अर्थशास्त्र में तीन प्रकारके दूत बतलाये गये हैं - ( १ ) निसृष्टार्थं ( २ ) परिमितार्थ और (३) शासनहर | इनमें से कविने अन्तिम 'शासनहर' दूतकी चर्चा की है। शासनहर दूत प्रत्युत्पन्नमति होना चाहिए । वह शत्रुदेश के प्रमुख पदाधिकारियोंसे मित्रता रखनेका प्रयास कर उन्हें अपने विश्वास में रखनेका प्रयास करता था । वह वाग्मी होता था तथा अपने चातुर्य से परपक्षीको युक्ति एवं तर्क आदिसे प्रभावित करनेका पूर्ण प्रयास करता था । इस प्रसंग में विद्याधर हयग्रीव द्वारा राजा प्रजापतिके पास प्रेषित दूत प्रजापति, ज्वलनजटी आदिको समझाता है कि वे विद्याधर - कन्या स्वयंप्रभाको हयग्रीवके हाथोंमें सौंप दें । दूत इस विषय में उन्हें सामनीति पूर्वक समझाता है और जब वे कुछ नहीं समझना चाहते, तब उन्हें दामनीति से अपना कार्य पूर्ण करने की सूचना देता है ( ५ १ ५ ) । ५. राजा के भेद प्रभुसत्ता में होनाधिकता के कारण कविने राजाके लिए चक्रवर्ती (५।२1१ ), अर्धचक्रवर्ती ( ३ | १९/७ ), माण्डलिक ( ३ | २०|१० ), नराधिप ( १११०१८ ), नृप ( ३।२३।१४ ), नरपति ( २|७|१ ), और नरेन्द्र ( १७१० ) जैसे शब्द प्रयोग किये हैं । अपने-अपने प्रसंगोंमें इन नामोंकी सार्थकता है । विजित - राज्यों पर राजा वहाँके शासन-प्रबन्धके लिए अपना 'राजलोक' ( ३११३७ ) नियुक्त करता था । इस 'राजलोक' को सूबेदार अथवा आजकी भाषामें गवर्नर कह सकते हैं। हो सकता है कि अशोककालीन रज्जुक ही उक्त राजलोक हों । ( दे. अशोकका चतुर्थ स्तम्भ लेख ) १८. युद्ध प्रणाली 'वड्डमाणचरिउ' में प्रमुख रूपसे दो भयानक युद्धोंके प्रसंग आये हैं । एक तो विश्वनन्दि और विशाखनन्दिके बीच, तथा दूसरा चक्रवर्ती त्रिपृष्ठ और विद्याधर राजा हयग्रीवके बीच । विश्वनन्दि और विशाखनन्दिके बीच का युद्ध वस्तुतः न्याय, नीति तथा सौजन्यपर छल-कपट, दम्भ, ईर्ष्या, विद्वेष एवं अन्याय For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001718
Book TitleVaddhmanchariu
Original Sutra AuthorVibuha Sirihar
AuthorRajaram Jain
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1975
Total Pages462
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Story, Literature, & Religion
File Size9 MB
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