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________________ ४८ वड्डमाणचरिउ ( २।२२।१०), वायरण < व्याकरण ( ९।१।१४ ), सा< श्वान (१०।१८३१), वणसइ (वनस्पति ( १०७९)। १२. वर्ण-विपर्यय । यथा तियरण < त्रिरत्न अथवा रत्नत्रय ( १०॥३६।१५, १०॥४१॥४.), सरहसु< सहर्ष ( ९।१९।८), दोहर<दीर्घ ( २।२०१२)। १३. प्रथमा एवं द्वितीया विभक्तियोंके एकवचनमें अकारान्त शब्दों के अन्तिम अकार अथवा विसर्गके स्थानमें प्रायः उकार । कहीं-कहीं एँ का प्रयोग मिलता है। यथा-चरित (चरिउ (१२), सग्गु र स्वर्गः ( १।१६।१०), सिरिचंदु<श्रीचन्द्रः (१०४१।१२), संभिण्णु ( सम्भिन्न ( ३।३०।८ ), हेमरहु ( हेमरथः ( ७।४।१२ ), दिणिंदु < दिनेन्द्रः ( ५।६।६ ), समुद्द< समुद्रं ( ५।६।५), खुदु < क्षुद्रं (५।६।६ ), वणवाले <वनपालः ( २।३।१८) । १४. तृतीया विभक्ति के एकवचनमें अन्त्य अकारके स्थानमें 'ए' का प्रयोग एवं कहीं-कहीं 'ह' अथवा "एण' का प्रयोग । यथा परमत्थे < परमार्थेन ( ४।१२।१२ ), हयकंठे< हयकण्ठेण ( ५।२२।८ ), सम्मत्ते< सम्यक्त्वेन ( २।१०।१४), पयत्ते < प्रयत्नेन ( २।१०।१४ ), मिच्छादिट्ठिह < मिथ्यादृष्ट्या ( २।१६।९), तेण< तेन (६।२।३), विज्जाहरेण <विद्याधरेण ( ५।२०।९), उवरोहण < उपरोधेन ( १।११।७)। १५. तृतीयाके बहुवचनमें अन्त्य अकारके स्थानपर एकार तथा हिं प्रत्यय । यथासवेहि < सर्वेः ( ११७१४ ), मणोरमेहि < मनोरमैः ( ३।१६।९), जणेहि र जनैः ( ३।१६।११), कुसुमेह (कुसुमैः (१।९।६)। १६. अकारान्त शब्दोंमें पंचमी विभक्तिके एकवचनमें 'हो' प्रत्यय तथा बहुवचनमें हैं अथवा हिं प्रत्यय । यथा गेहहो<गृहात् (१।१७।१२ ), तहो ( तस्मात् ( २।१११), मेहहो<मेघात् (२।१।१४), पुरिसह < पुरुषेभ्यः ( ३॥३०॥३), सव्वहँ < सर्वेभ्यः (४।२४।१५), पिययमाहें < प्रियतमेभ्यः (१।४।१६), जणवएहि < . जनपदेभ्यः ( ३३११६)। १७. अकारान्त शब्दोंसे परमें आनेवाले षष्ठीके बहुवचनमें हैं एवं सु प्रत्ययोंके प्रयोग । यथा मुणीसराहँ < मुनीश्वराणाम् ( १।११।५ ), जणाहँ < जनानाम् (१।१४।९), ठियाहँ < स्थितानाम् ( ३।१।९), कासुर केषाम् (१।१२।४), रयणायरासुर रत्नाकराणाम् (१।२।८), तिणासुर तृणानाम् (१।२।७)। १८. स्त्रीलिंगके शब्दोंमें पंचमी और षष्ठीके एकवचनमें 'हे' का प्रयोग । यथाताहे < तस्याः (१।६।१०), जाहे < यस्याः (१।६।१०)। १९. क्रियारूपोंके प्रयोग प्रायः प्राकृतके समान हैं। पर कुछ ऐसे क्रियारूप भी उपलब्ध हैं, जो कि विकसित भारतीय-भाषाओंका प्रतिनिधित्व करते हैं और जिनसे आधुनिक भाषाओंकी कड़ी जोड़ी जा सकती है। यथा ढोइउ (बुन्देली) = ले जाने के अर्थमें (४।२२।६) चल्ल चलनेके अर्थमें (२।१५।१२) पुच्छिउ पूछनेके अर्थमें (२।१५।६) मिलइ मिलनेके अर्थ में (४।७।३) Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001718
Book TitleVaddhmanchariu
Original Sutra AuthorVibuha Sirihar
AuthorRajaram Jain
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1975
Total Pages462
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Story, Literature, & Religion
File Size9 MB
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