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________________ प्रस्तावना लग्गी जोइ हुवउ होनेके अर्थमें (८।१५) लगनेके अर्थमें (४१७४४) सि (हरियाणवी एवं पंजाबी), होनेके अर्थमें (१०।२६।८) वइसइ (मैथिली) बैठनेके अर्थमें (१०।२५।९) बइठिउ ( बुन्देली एवं बघेली ) बैठनेके अर्थमें (६।४।५) लेवि लेनेके अर्थमें (५।१३।३) देखनेके अर्थमें (५।१४।१०) होइ होनेके अर्थमें (६।६।९) २०. वर्तमान कृदन्तके रूप बनानेके लिए 'माण' प्रत्यय । यथा धावमाण (८।११।६), निव्वमाण (१।४।३), कंपमाण (३।४।३), गायमाण (२।३।१४), आगच्छमाण (३।४।३), णउमाण (२।१४।३) आदि । २१. पूर्वकालिक क्रिया या सम्बन्धसूचक कृदन्तके लिए इवि, एवि, एप्पिणु और एविणु प्रत्ययोंके प्रयोग । यथा Vप्र-नम्-पणव + इवि = पणविवि (७।६।१) /अव + लोक-अवलो + इवि = अवलोइवि (७११६७) /प्रेक्ष-पेक्ख + इवि =पेक्खिवि (१।४।८) VF + नम्-पणव + एवि = पणवेवि (१।१७।१३) Vश्रु-सुण + एवि = सुणेवि (३।९।९।) लभ्-लह + एवि = लहेवि (३।३।१२) Vधृ-धार + एवि = धारेवि (९।७।१०) /प्र + नव = पणव + एप्पिणु = पणवेप्पिणु (२।४।४) V -कर+ एविणु = करेविणु (१।८।१४) Vलभ-लह + एविणु = लहेविणु (१।७।११) Vनि + सुण + एविणु = णिसुणेविणु (४।४।१६) V स्मृ-सुमर + एविणु = सुमरेविणु (४।४।७) २२. अपभ्रंश-व्याकरण सम्बन्धी उक्त विशेषताओंके अतिरिक्त 'वड्ढमाणचरिउ' में, जैसा कि पूर्वमें ही कहा जा चुका है, कुछ ऐसी शब्दावली भी प्रयुक्त है जिसके साथ आधुनिक भारतीय भाषाओंका सम्बन्ध बड़ी सुगमताके साथ जोड़ा जा सकता है। उदाहरणार्थ कुछ शब्द यहाँ प्रस्तुत किये जाते हैं चोज (१।५।७, बुन्देली, बघेली, हरियाणवी, पंजाबी )= आश्चर्य; पेट्ट (२।२।१२) पेट; रूख (२।३।१२, बुन्देली) वृक्ष; घाम (२।३।१२, बुन्देली) = धूप; ढुक्क (२।२२।१, बुन्देली)= ढूँकना, या झाँकना; कड्ढ (४।१०।५, बुन्देली) = काढ़ना, निकालना; ढोइउ (४।२२।६)= ढोना; गुड़ (४।२४।४) = गुड़; मांगण (५।४।३, हरियाणवी, पंजाबी, राजस्थानी)= माँगना; कित्तिउ (५।४।६, हरियाणवी, पंजाबी, बुन्देली) = कितना; बप्प (५।५।८) = बाप रे; मुक्ख (५।१२।३, हरियाणवी, पंजाबी, बुन्देली आदि) = मुख्य; चप्पि (५।१३।२)= चाँपकर; लेवि (५।१३।३) = लेकर; जोइ (५।१४।१०) = देखना; पलित्त (५।१६।४, बुन्देली) = पलीता, मशाल; कच्छोटी (५।१६।४, बुन्देली-तथा कच्छा-हरियाणवी एवं पंजाबी) = लघु अधोवस्त्र; तोडि (५।१९।९)= तोड़कर; चडिउ (५।२३।११) = चढ़कर; तोलिय (५।२३।१४)= तौलकर; बइठिउ (६।४।५) = बैठा; ढोर (७।३।८)=जानवर; चरुव (७।१३।३ बुन्देली) = चरुवा या कलश; हुवउ (८।१५) Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001718
Book TitleVaddhmanchariu
Original Sutra AuthorVibuha Sirihar
AuthorRajaram Jain
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1975
Total Pages462
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Story, Literature, & Religion
File Size9 MB
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