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वड्डमाणचरिउ चित्तंगउ चित्तलिय तुरंतउ
हय-रिउ-लोहिएण मय-लित्तउ । उट्ठिउ वाम-करेण पुसंतउ
दिढ-दसणग्गहि अहरु डसंतउ । सेय-फुडिंग-भरिय-गंडस्थल
अवलोइउ भुवजुउ वच्छत्थलु । रण-रोमंच' साहिय-कायउ
भीम भीम-दंसण संजायउ । भय भाविय णाविय परवलण कायर-जण मं भीसण । विज्जा-भुव-वल गन्वियउ णीलकंठ पुणु भीसणु ॥.
[४।५।१-१४] उक्त प्रसंगोंमें हयग्रीव तथा त्रिपृष्ठ एवं ज्वलनजटी आलम्बन हैं। हयग्रीवकी इच्छाके विपरीत स्वयंप्रभाका त्रिपृष्ठके साथ विवाह, हयग्रीवका तिरस्कार आदि उद्दीपन हैं । आँखें तरेरना, ओठ काटना, शस्त्रोंका स्पर्श करना, शत्रुओंको ललकारना आदि अनुभाव हैं। असूया, आवेग, चपलता, मदोन्मत्तता आदि संचारीभाव है तथा क्रोध स्थायीभाव है।
भयानक रस
वढमाणचरिउमें भयानक रसके अनेक प्रसंग आये हैं, किन्तु वह प्रसंग सर्वप्रमुख है, जिसमें अपना नन्दन-वन वापस लेने हेतु विश्वनन्दि, विशाखनन्दिसे युद्ध करने हेतु जाता है और विशाखनन्दि उसे कृतान्तके समान आता हुआ देखकर उससे भयभीत होकर कभी तो चट्टानके पीछे छिप जाता है और कभी कैंथके पेड़पर चढ़ता-फिरता है। वह प्रसंग इस प्रकार हैदूरंतर णिविवसिवि स-सिण्णु
रणरंग-समुद्धरु वद्ध-मण्णु । अप्पुणु पुणु सहुँ कइवय-भडेहि
भूमिउडि-विहीणउ उब्भडेहि । गउ दुग्गहो अवलोयण-मिसेण
जुयराय-सीह अमरिस-वसेण । तं पावेवि उल्लंघिवि विसाल
जल-परिहा-समलंकरिय-सालु । विणिवाइवि सहसा सूर विदु
वियसाइवि सुर-वयणारविंदु । भग्गइँ असिवरसिहुँ रिउ-चलेण
कलयल परिपूरिय-णह-यलेण । उप्पडिय सिलमय थंभ पाणि
आवंतु कयंतुव वइरि जाणि । मलिणाणणु मह-भय-भरिय-गत्त
तणु-तेय-विवज्जिउ हीण-सत्त । दिढयर कवित्थ तरुवर असक्कु
लक्खण गभुब्भव चडिवि थक्कु । उप्पाडिए तरुवरे तम्मि णेण
गुरुयर सहुँ सयल-मणोहरेण । लक्खण-तणुरुह कंपंत-गत्तु
जुवराय-पाय-जुउ सरण-पत्त । तं पेखें वि भग्गु पाय-विलग्गु मणि लज्जिउ जुवराउ । लज्ज रिउ-वग्गे पणय-सिरग्ग अवरु वि-धीवर-सहाउ ।
(३।१५।१-१३) उक्त प्रसंगमें युवराज विश्वनन्दी आलम्बन है, उसके भय उत्पन्न करनेवाले कार्य-जल-परिखासे अलंकृत विशाल कोटको लांघ जाना, शत्रुके शूरवीरोंका हनन कर डालना, शिलामय स्तम्भ को हाथसे उखाड़कर कृतान्तके समान विशाखनन्दीके सम्मुख आना, कैथके पेड़को उखाड़ फेंकना आदि भयको उद्दीप्त करते हैं । रोमांच, कम्प, स्वेद, तेजोविहीनता आदि अनुभाव हैं, शंका, चिन्ता, ग्लानि, लज्जा आदि संचारी भाव हैं। भय स्थायी भाव है, जो कि उक्त भावोंसे पुष्ट होता है।
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