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________________ प्रस्तावना ४३ वीर रस यहाँ वीर रसका एक उदाहरण प्रस्तुत किया जाता है। कवि श्रीधरने त्रिपष्ठ और हयग्रीवकी सेनाके बीच सम्पन्न हुए युद्धके अवसरपर, युद्धके लिए प्रस्थान, संग्राममें लपलपाती एवं चमकती हई तलवारें, लड़ते हुए वीरोंकी हुंकार तथा योद्धाओंके शौर्यका कैसा सुन्दर एवं सजीव चित्रण किया है - __ अवरुप्परु हणंति सद्देविणु सुहडई सुहड सुंदरा । णिय-सामिय-पसाय-निक्खय-रय धणु रव-भरिय-कंदरा ॥ छिण्णिवि जंघ-जुवले परेण णिवडिउ ण सूरु भडु असिवरेण । ठिउ अप्प-सत्तु वर-वंस-जाउ अवलंविय संठिउ चारु चाउ । आयड्ढिवि धणु फणिवइ-समाणु घण-मुट्ठि-मुक्कु जोहेण वाणु । भिंदेवि कवउ सुहठहो णिरुत्तु किं भणु न पयासइ सुप्पहुत्त । गयवालु ण मुह-वडु घिवइ जाम गय मत्त-मयंगहो सत्ति ताम । पडिणय जोहे सो णिय-सरेहि विणिहउ पूरिय गयणोवरेहि। पडिगय-मय-पवण कएण भीसु सयरेण रुसंतु महाकरीसु। मुह-वडु फाडे वि पलंव-सुंडु करिवालु लंधि णिवडिउ पयंडु । णरणाहहँ सिय-छत्तई वरेहि णिय-णामक्खर-अंकिय-सरेहि। सहसा मुणंति संगर सकोह सिक्खाविसेस वरिसंति जोह। (५।११।१-१२) त्रिपृष्ठ एवं हयग्रीवका यह युद्ध-वर्णन आगे भी पर्याप्त विस्तृत है। उक्त पद्य तथा आगेके वर्णनोंमें त्रिपृष्ठ और हयग्रीव परस्परमें आलम्बन हैं। उद्दीपन-विभावमें हयग्रीवकी दर्पोक्तियाँ आती हैं। अनुभावमें रोमांच, दर्पयुक्त-वाणियाँ एवं धनुष-टंकार है। दर्प, धति, स्मृति एवं असूया संचारीभाव हैं। इस प्रकार कवि श्रीधरने शत्रु-कर्म, योद्धाओंकी दर्पोक्तियाँ, आवेग, असूया, रण-कौशल, पारस्परिक-भर्त्सना, तलवारोंकी चमक, विविध बाणोंकी सन्नाहट, हाथियोंकी चिंघाड़, घोड़ोंकी हिनहिनाहट आदिके सजीव चित्रण किये हैं। रौद्र रस विद्याधर-नरेश ज्वलनजटी द्वारा अपनी कन्या स्वयंप्रभाका विवाह भूमिगोचरी राजा प्रजापतिके पुत्र त्रिपृष्ठके साथ कर दिये जानेपर विद्याधर-राजा हयग्रीवके क्रोधित होनेपर रौद्र रस साकार हुआ है (४५)। वह अपने योद्धाओंको प्रजापतिके विरुद्ध युद्ध छेड़नेको ललकारता है। इस प्रसंगमें हयग्रीवका कुपित होकर काँपने, योद्धाओंके क्षब्ध होने, अधरोंके चबाने तथा मुखोंके भयंकर हो जानेका वर्णन कविने इस प्रकार किया हैसो हयगीओ समर अभीओ। . णिय मणे रुट्ठो दुज्जउ दुट्ठो । आहासइ वइवसु व विहीसणु खय-कालाणल-सण्णिह णीसणु । अहो खेयरहो एउ किं णिसुवउ तुम्हहँ पायडु जं किउ विरुवउ । तेण खयर-अहमें अवगणेवि तिण-समाण सव्वे वि मणि मणवि । कण्णा-रयणु विइण्णउ मणुवहो भूगोयरहो अणिज्जिय-दणुवहो। तं णिसुणेवि सह-भवण-भडोहई संखुहियई दुज्जय-दुज्जोहई। णं जणवय-उप्पाइय कलिलई खय-मरु-हय लवणण्णव-सलिलई। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001718
Book TitleVaddhmanchariu
Original Sutra AuthorVibuha Sirihar
AuthorRajaram Jain
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1975
Total Pages462
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Story, Literature, & Religion
File Size9 MB
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