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________________ प्रस्तावना शान्त रस संसारके प्रति निःसारताको अनुभूति अथवा तत्त्वज्ञान द्वारा उत्पन्न निर्वेदसे शान्त,रसकी सृष्टि होती है । वड्ढमाणचरिउमें यह शान्त रस अंगी रसके रूप में अनुस्यूत है । राजा नन्दिवर्धन, राजा नन्दन, युवराज विश्वनन्दी तथा राजकुमार वर्धमान आदि सभी पात्र संसारके भौतिक सुखोंकी अनित्यता एवं अस्थिरता देखकर वैराग्यसे भर उठते हैं और उनका निर्वेदयुक्त हृदय शान्तिसे ओत-प्रोत हो जाता है। यह निर्वेद तत्त्वज्ञान-मूलक होता है। अतः राजकुमार वर्धमान संसारकी असारता देखकर ही राजसी सुख-भोगोंका परित्याग कर दीक्षित हो जाते हैं। कवि श्रीधरने मगधनरेश विश्वभूतिके वैराग्यका वर्णन करते हुए बताया है कि किसी एक दिन उसने एक अत्यन्त वृद्ध प्रतिहारीको देखा तो विचार करने लगा किसो विस्सणंदि-जणणे पउत्तु परियाणिवि णाणा-गुण-णिउत्तु । लहुभाइह जाउ विसाहणंदि गंदणु णिय-कुल-कमलाहि गंदि । एक्कह दिणि राएँ कंपमाणु पडिहारु देक्खि आगच्छमाणु । संचिंतिउ णिच्चल-लोयणेण वइराय-भाव-पेसिय-मणेण । एयहा सरीरु चिरु चित्तहारि लावण्ण-रुव-सोहग्ग-धारि । माणिज्जंतउ वर-माणिणीहि अवलोइज्जंतउ कामिणीहि । तं बलि-पलियहिं परिभविउ कासु सोयणिउ णं संपइ पुण्णरासु । जयविहु सयलिंदिय भणिय सत्ति णिण्णासिय-दुट्ठ-जरा-पउत्ति । मग्गेइ तो-वि णियजीवियास णिरु वड्ढइ बुड्ढहा मणे पियास । सिढिली भूजुवलु णिरुद्ध दिट्ठि पइ-पइ खलंतु णावंतु दिट्ठि । णिवडिउ महि-मंडलि कह वि णाई णिय-जोव्वणु एह णियंतु जाई। अहवा गहणम्मि भव गहणम्मि जीवइँ णट्ठ-पहम्मि । उप्पाइय पेम्मु कहि भणु खेमु कम्म-विवाय-दुहम्मि ॥ ( ३।४।१-१३ ) इय वइरायल्ले णरवरेण परिणिज्जिय-दुज्जय-रइवरेण । जाणमि विवाय-दुह-बीउ रज्जु अप्पिवि अणुवहो धरणियलु सज्जु । जुवराश थवेविणु णिय-तणूउ सुमहोच्छवेण गुण-पत्त भूउ । पणवे वि सिरिहर-पय-पंकयाइँ विहुणिय-संसार-महावयाइँ । णिच्चलयरु विरएविणु स-सित्तु अजरामर-पय-संपय-णिमित्तु । चउसय-णरिंद-सहिएण दिक्ख संगहिय मुणिय-स-समयहो सिक्ख । ( ३।५।१-६ ) उक्त उद्धरणमें सांसारिक असारताका बोध आलम्बन है। वद्ध-प्रतिहारीकी जर्जर-अवस्थाका बीभत्स रूप उद्दीपन है । वृद्धावस्थाके कारण शारीरिक-विकृति, कर्मफलोंकी विविधता तथा सांसारिक सुखोंके त्यागकी तत्परता आदि अनुभाव हैं । मति, धृति, स्मृति, हर्ष, विबोध, ग्लानि, निर्वेद आदि संचारीभाव हैं। निर्वेद एवं समतावृत्ति स्थायीभाव हैं । ८. भाषा विबुध श्रीधर मुख्यतया अपभ्रंश कवि हैं किन्तु उन्होंने अपनी प्रायः सभी कृतियोंमें सन्ध्यन्त अथवा ग्रन्थान्तमें अपने आश्रयदाताओंके लिए आशीर्वचनके रूप में संस्कृत-श्लोक भी निबद्ध किये हैं। बङ्माणचरिउमें Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001718
Book TitleVaddhmanchariu
Original Sutra AuthorVibuha Sirihar
AuthorRajaram Jain
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1975
Total Pages462
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Story, Literature, & Religion
File Size9 MB
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