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जहिँ फलिह-भित्ति मडिविवयाइँ स- सवत्ति-संक गय-रय - खमाहँ
दृष्टान्त
अपह्नुति
उपमेय पर उपमानके निषेध-पूर्वक आरोप अथवा प्रकृतका निषेध कर अप्रकृतकी स्थापना द्वारा इस अलंकार की योजना की गयी । यथा
पहिखिणउँ पहिउ निसण्णउँ जहिँ सरेहिँ सद्दिज्जइ ।
दि सहि सलिल सहद्दह णं करुणइँ पाइज्जइ ॥ ( १।३।१५-१६ )
तं अच्चरिउ ण जं पुणु थिरयर अणु-दिणु भमइ णिरारिउ सुंदर ससियर - सरिस गुणेहिँ पसाहिउ
अतिशयोक्ति
किसी वस्तुकी महत्ता दिखानेके लिए उसका इतना बढ़ा-चढ़ाकर वर्णन करना कि जिससे लोकसीमाका ही उल्लंघन हो जाये । ऐसी स्थिति में अतिशयोक्ति अलंकार होता है । कविने देश, नगर एवं राजाओं के वर्णन-प्रसंगोंमें इस अलंकार का प्रयोग किया है । यथा-
विभावना
व माणचरिउ
णिय रूवइँ णयणहिँ भावियाइँ । जुज्झति तियउ निय पिययमाहं ॥
अर्थान्तरन्यास
जहाँपर उपमेय एवं उपमानके सामान्य धर्मके बिम्ब प्रतिबिम्ब भावका चित्रण किया जाये तथा वाचक शब्दका उल्लेख न हो, वहाँ दृष्टान्त अलंकार होता है । यथा—
यह अइ- पियवा हो पिय वीरवइ वि सिद्धी ।
अराएँ नाइविहाएँ मण-वारे सिद्धी ।। ( १।५ घत्ता )
हराएँ विराएँ तणुरुहु समयण काएँ ।
अरुणच्छवि उप्पाउ रवि णं सुर- दिसिहिँ पहाएँ ॥ ( ११६ घत्ता )
१।४।१५-१६ )
मणि चितिय करुणय - कप्परुक्खु परिविद्धिहे मइ-जल-सिंचणेण
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कित्ति महीले निज्जिय जसिहर ।
तं जि वित्तु पूरिय गिरि-कंदर । ( २।२।६-७ ) मंडलु अरिगणु व महाहिउ । ( २1२1९ )
णं पर्याणिय चोज्जु सव्वत्थवि रमणीए ।
सहुँ पवर- सिरीए कोस दंड धरणीए । ( ६।३ घत्ता )
कारण के बिना ही जहाँ कार्य की उत्पत्ति हो जाये, वहाँ विभावना अलंकार होता है । यथा
जसभूसिय समहीहर रसेण,
अवि फुल्ल-कुंदज्जइ- सम-जसेण । ( ११५१९ ) णव जलय- जाल सम मणहराहँ ।
खुर-धाय-जाउ रउ हयवराह दोहं वि बलाहँ हुउ पुरउ भाइ
र वारइ नियतेण णाइ ।। ( ५1१०1८-९ )
सामान्य या विशेष द्वारा कथनका समर्थन करते समय अर्थान्तरन्यास अलंकार होता है । कविने इस अलंकारका कई स्थानोंपर प्रयोग किया है । यथा
अणु जणवयो विलुप्त-दुक्खु ।
णिज्जेण विरसु को होइ तेण ॥ ( १।५।११-१२ )
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