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________________ ३९ प्रस्तावना को स्पष्ट करने और तन्मूलक भावोंको चमत्कृत करनेके लिए उपमालंकारकी योजना की है । कवि राजा नन्दिवर्धन के वीर - पराक्रम, तेज, ओज, गाम्भीर्य आदि गुणोंका वर्णन उपमाओंके सहारे इस प्रकार करता है उपमा णामेण दिवद्धणु सुतेउ महिलइ पयासिय-वर विवेउ उदयद्दि पवाय दिवायरासु णव- कुसुमुग्गमु विजयदुमासु छणइंदु समग्ग कलायरासु कवि वीरवती के सौन्दर्य-चित्रण में अनेक उपमानों द्वारा भावाभिव्यक्ति करता है। उसके उपमान यद्यपि परम्परा - प्राप्त हैं, तो भी वे प्रसंगानुकूल होने के कारण चमत्कार उत्पन्न करते हैं । उत्प्रेक्षा । उत्प्रेक्षाकी दृष्टिसे अपभ्रंश भाषा अत्यन्त समृद्ध है । 'णं' जो कि संस्कृत भाषाके 'ननु' शब्दका प्रतिनिधि है, उत्प्रेक्षाको उत्पन्न करनेमें समर्थ है । कवि श्रीधरने 'वड्डमाणचरिउ' में अनेक स्थलोंपर इस अलंकारका प्रयोग किया है— कनकपुरकी श्यामांगनाओंका वर्णन करता हुआ कवि कहता हैकर करवाल - किरण सामंगउ । रूपक जहिं सव्वत्थ जंति णिब्भंगउ दूवियाउ दिवस वि स रयणिउ तहिँ फलिह - सिलायलि सष्णिसण्णु दु णाम पुत्तु ताए कंतिवंतु णं णिसी सु वारिरासि णं अगाहु दुण्णय पण्णय - गण - वेणतेउ । अरि-वंस - वंस- वण जायवेउ ॥ मंभीसणु रणमहि कायरासु । रायरु गंभीरम गुणासु ॥ पंचाणणु पर-वल-णर-मयासु । (१।५ ) जहाँ उपमेयमें उपमानका निषेधरहित आरोप किया जाये वहाँ रूपकालंकार होता है । रूपकका तात्पर्य ही रूपको ग्रहण करना है । अतः इस अलंकार में प्रस्तुत ( उपमेय ) अप्रस्तुत ( उपमान ) का रूप ग्रहण कर लेता है । कविके रूपक भावाभिव्यंजनमें पूर्णतया सशक्त हैं । यथा णामेण दिवद्वणु सुतेउ णहयले मुत्तिमंत णं रयणिउँ ॥ ( ७।१।८-९ ) जिस पुंजोवरि सिणु । ( १1९1१ ) जाउ णं महालवाए । यवंतु णं दिसु । रक्खरोह वाहु । ( २।३१३,५,६ ) जहिँ मंदिर भित्ति विलंवमाण माऊर इंति गिण कएण जहिँ फलिह-बद्ध महियले मुसु अलि पडइ कमल लालसवेउ Jain Education International दुण्णय - पण्णय-गण वेणतेउ ( १1५1१ ) अरि-वंस- वंस-वण-जायवेउ ( १1५1३ ) पंचाणु पर-बल-र-मयासु ( १/५/६ ) भ्रान्तिमान प्रस्तुत के दर्शन से सादृश्यता के कारण अप्रस्तुतके भ्रम-वर्णन द्वारा कविने चमत्कारका आयोजन किया है । यथा---- णील- मणि करोहइ धावमाण । कसणोरयालि भक्खण रएण ॥ ( १।४।११-१२ ) णायणा पड़िविवसु । अहवा महु वह ण हवइ विवेउ ।। ( १।४।१३-१४ ) For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001718
Book TitleVaddhmanchariu
Original Sutra AuthorVibuha Sirihar
AuthorRajaram Jain
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1975
Total Pages462
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Story, Literature, & Religion
File Size9 MB
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