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प्रस्तावना
२५
नीलकण्ठ, ईश्वर, वज्रदाढ़, अकम्पन एवं धूम्रालय नामक विद्याधर योद्धाओंके साथ ज्वलनजटी और त्रिपष्ठको युद्धके लिए ललकारा (५-६)। हयग्रीवके मन्त्रीने उसे युद्ध न करनेके लिए बार-बार समझाया किन्तु वह हठपूर्वक अपनी सेना सहित युद्ध के लिए निकल पड़ा और मार्गमें शत्रुजनोंपर आक्रमण करता हुआ एक पर्वतपर जा रुका (७-११)।
___इधर राजा प्रजापतिको अपने गुप्तचर द्वारा, हयग्रीव द्वारा आक्रमण किये जानेको सूचना मिली, तब उसने अपने मन्त्रि-मण्डलको बुलाकर विचार-विमर्श किया ( १२)। सर्वप्रथम मन्त्रीवर सुश्रुतने उसे सामनीतिसे कार्य करनेकी सलाह दी ( १३-१५), किन्तु राजकुमार विजयने सामनीतिको अनुपयोगी सिद्ध कर दिया तथा उसने हयग्रीव-जैसे दुष्ट शत्रुसे युद्ध करनेकी सलाह दी। अन्तमें विजयकी सलाहको स्वीकार कर लिया गया। किन्तु गुणसागर नामक अन्य मन्त्रीने कहा कि युद्ध में प्रस्थान करनेके पूर्व युद्ध-विद्यामें सिद्धहस्त होना आवश्यक है। गुणसागरका यह सुझाव स्वीकार कर लिया गया। त्रिपृष्ठ एवं विजय ये दोनों ही विद्या सिद्ध करने में संलग्न हो गये । उनके अथक श्रमसे एक ही सप्ताहमें उन्हें हरिवाहिनी एवं वेगवती आदि ५०० विद्याएँ सिद्ध हो गयीं। त्रिपृष्ठने अपने भाई विजय एवं सैन्यदलके साथ युद्ध-भूमिकी ओर प्रयाण किया। मार्गमें स्थान-स्थानपर प्रजाजनोंने उनका हार्दिक स्वागत कर उन्हें आवश्यक वस्तुओंका दान दिया (२०-२२)
और इस प्रकार चलते-चलते वह ससैन्य रथावर्त-शैलपर पहुँचा। कविने इस प्रसंगमें रथावर्त-शैल तथा वहाँपर लगे हुए बाजार आदिका बड़ा ही सुन्दर वर्णन किया है ( २३-२४ ) । [ चौथी सन्धि]
हयग्रीव सर्वप्रथम अपने दूतको सन्धि-प्रस्ताव लेकर त्रिपृष्ठके पास भेजता है और कहलवाता है कि यदि आप अपनी कुशलता चाहते हैं तो स्वयंप्रभाको वापस कर दीजिए। विजय हयग्रीवका शरारत-भरा यह सन्देश सुनकर आग-बबूला हो उठता है और हयग्रीवकी असंगत बातोंकी तीव्र भर्त्सना करता है (१-४) । हयग्रीवका दूत त्रिपृष्ठको पुनः अपनी बात समझाना चाहता है, किन्तु उससे त्रिपृष्ठका क्रोध ही बढ़ता है। अतः उसने उस दूतको तो तत्काल विदा किया और अपनी सेनाको युद्ध-क्षेत्र में प्रयाण करनेकी आज्ञा दी। रणभेरी सुनते ही सेना युद्धोचित उपकरणोंसे सज्जित होकर त्रिपृष्ठके सम्मुख उपस्थित हो गयी (५-७)। राजा प्रजापतिने आपत्तियों के निवारक पुष्प, वस्त्र, विलेपन, ताम्बल आदिके द्वारा सभीका सम्मान किया। स प्रथम हस्तिसेना, फिर अश्वसेना और उसके पीछे बाकीकी सेना चली। युद्ध-क्षेत्रमें त्रिपृष्ठ और हयग्रीवकी सेनाओं में कई दिनों तक भयंकर युद्ध होता रहा और अन्तमें हयग्रीव त्रिपृष्ठके द्वारा मार डाला गया (८-२३) ।
[पाँचवीं सन्धि ] हयग्रीवके वधके बाद नर एवं खेचर राजाओंके साथ विजयने जिनपूजा की और गन्धोदकसे त्रिपृष्ठका अभिषेक किया। त्रिपृष्ठने चक्रकी पूजा की और वह दिग्विजय हेतु निकल पड़ा। सर्वप्रथम उसने मगधदेव, फिर वरतनु और प्रभास तथा अन्य देवोंको सिद्ध किया और शीघ्र ही सभी राजाओंको अपने वशमें कर वह पोदनपुर लौटा। त्रिपृष्ठकी इस विजयसे ज्वलनजटी अत्यन्त प्रसन्न हुआ (१)। प्रजापतिने भी त्रिपृष्ठकी योग्यता देख कर उसका राज्याभिषेक कर दिया। कुछ समय बाद ज्वलनजटीने अपने समधी राजा प्रजापतिसे अपने घर वापस लौटनेकी अनुमति मांगी। प्रजापतिने भी उसे भावभीनी विदाई दी और ज्वलनजटी शीघ्र ही रथनपुर वापस लौटा (२)। त्रिपृष्ठ एवं स्वयंप्रभा सुखपूर्वक समय व्यतीत करने लगे। कालक्रमसे उन्हें दो पुत्र एवं एक पुत्री उत्पन्न हुई (३)। जिनका नाम उन्होंने क्रमशः श्रीविजय, विजय और द्युतिप्रभा रखा।
इधर विद्याधर-नरेश ज्वलनजटीने दीक्षा धारण कर ली। जब गुप्ततरके द्वारा राजा प्रजापतिको वह समाचार मिला, तब वह अपनी राज्यलिप्साको धिक्कारने लगा (४)। उसने हरि-त्रिपष्ठको राज्य सौंपकर मनि पिहिताश्रवके पास जिनदीक्षा धारण कर ली और मोक्ष-लाभ लिया।
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