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वड्डमाणचरिउ
इधर द्युतिप्रभाको यौवनश्रीसे समृद्ध देखकर उसका पिता त्रिपृष्ठ योग्य वरकी खोजमें चिन्तित रहने लगा ( ५ )। त्रिपृष्ठने विजय ( हलधर ) को अपनी चिन्ता व्यक्त की (६)। विजयने उसे स्वयंवर रचने की सलाह दी, जिसे त्रिपृष्ठने स्वीकार कर लिया। शीघ्र ही स्वयंवर का समाचार प्रसारित कर दिया गया और उसकी जोर-शोरके साथ तैयारियाँ प्रारम्भ हुई। ज्वलनजटीके पुत्र रविकीर्तिने जब यह समाचार सुना तो वह अपने पुत्र अमिततेज तथा कन्या सुताराको साथ लेकर स्वयेवर-स्थलपर आ पहुँचा। सुताराने जैसे ही त्रिपष्ठके चरण-स्पर्श किये, विजय उसके सौन्दर्यको देखकर आश्चर्यचकित रह गया (७)। रविकीति भी श्रीविजयको देखकर भाव-विभोर हो उठा तथा उसने अपने मनमें सुताराका विवाह उसके साथ कर देनेका निश्चय कर लिया। सुताराके दीर्घ निश्वास एवं उद्वेगने भी श्रीविजयको अपना मनोभाव व्यक्त कर दिया (८)।
अगले दिन स्वयंवर-मण्डपमें द्युतिप्रभाने सखियों द्वारा निवेदित श्रेष्ठ सौन्दर्यादि गुणोंवाले राजाओंकी उपेक्षा कर अमिततेजके गले में वरमाला डाल दी और इधर सुताराने भी अपनी वरमाला श्रीविजयके गले में पहना दी। इन दोनों शुभ-कार्योंके सम्पन्न होते ही अर्ककीति अपने घर लौट आया। त्रिपृष्ठने पूर्वभवमें यद्यपि कठोर तपस्या की थी, किन्तु निदानवश वह मरकर तैंतीस सागरकी आयुवाले सातवें नरकमें जा पड़ा (९)। त्रिपृष्ठ (हरि) की मृत्युसे विजय (हलधर ) अत्यन्त दुखी हो गया। स्थविर-मन्त्रियों द्वारा प्रतिबोधित किये जानेपर जिस किसी प्रकार उसका मोह-भंग हुआ। उसने त्रिपृष्ठको भौतिक देहका दाहसंस्कार कर तथा श्रीविजयको राज्य-पाट सौंपकर १००० राजाओंके साथ कनककुम्भ नामक मुनिराजके पास जिन-दीक्षा ग्रहण की और दीर्घ तपस्याके बाद मोक्ष प्राप्त किया (१०)।
सप्तम नरकमें त्रिपृष्ठ एक क्षण भी सुख-शान्ति न पा सका। जिस किसी प्रकार वह चक्रपाणि (त्रिपष्ठ ) भारतवर्ष के एक पर्वत-शिखरपर रौद्रस्वभावी यमराजके समान सिंहके रूपमें उत्पन्न हुआ और फिर वहाँसे अनेकविध दुखोंसे भरे हुए प्रथम नरकमें (११-१३)। ( यहाँपर कवि पाठकोंका ध्यान पुनः पिछले कड़वक सं. २१७ के प्रसंगको ओर आकर्षित करता है तथा कहता है कि--"प्रोष्ठिल मुनि राजा नन्दन की भवावलि सुनाते हुए आगे कह रहे हैं।")
मुनिराजने सिंहको मिथ्यात्व, अविरति, प्रमाद, कषाय एवं योगरूप कर्मबन्धके कारण बताकर अन्तर्बाह्य परिग्रह-त्यागके फलका वर्णन करके संयम-उत्तम मार्जव, आर्जव एवं शौच धर्म, दुस्सह-परीषह एवं पंचाणवतोंका उपदेश दिया तथा त्रिपष्ठके जीव-सिंहके अगले भवोंमें जिनवर होनेकी भविष्यवाणी कर वे ( मुनिराज ) गगन-मार्गसे वापस लौट गये ( १४-१७)। मुनिराजके उपदेशसे प्रभावित होकर वह सिंह एक शिलापर बैठ गया और समवृत्तिसे अनशन करने लगा। तपस्याकालमें वह अत्यन्त पीड़ा देनेवाली वायुसे आतप एवं शीत-परीषहोंको सहता था। दंश-मशकों द्वारा दंशित होनेपर भी वह एकाग्र भावसे तपस्या करता रहता था। शुभ धर्मध्यानके फलसे वह सिंह मरा और सौधर्म-स्वर्गमें हरिध्वज नामका देव हुआ। स्वर्गमें अवधिज्ञान उत्पन्न होनेके कारण उसे पूर्वभवमें उद्धार करनेवाले मुनिराजका स्मरण आ गया। अतः उनके प्रति कृतज्ञता ज्ञापित करनेके लिए वह उनकी सेवामें उपस्थित हुआ और उसे व्यक्त कर वह वापस लौट गया (१८-१९)। [ छठी सन्धि]
वह हरिध्वज देव वत्सा देश स्थित कनकपुर नामके नगरके विद्याधर राजा कनकप्रभकी रानी कनकमालाके गर्भसे कनकध्वज नामक पुत्रके रूपमें उत्पन्न हुआ । विद्या, कीर्ति एवं यौवनसे सम्पन्न होनेपर राजा कनकप्रभने उसका विवाह एक सुन्दरी राजकुमारी कनकप्रभाके साथ कर दिया (१-३ )।
इधर कनकप्रभने कनकध्वजको नृपश्री देकर सुमति नामक मुनिवरके समीप दीक्षा ग्रहण कर ली। कनकध्वजने योग्यतापूर्वक राज्य-संचालन कर पर्याप्त यश एवं लोकप्रियता अजित की। समयानुसार उसे हेमरथ नामक एक पुत्ररत्नकी भी प्राप्ति हुई ( ४ )।
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