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प्रस्तावना
१०. माहेन्द्रदेव (१९-२१), ११. राजगृहके साण्डिल्यायन विप्र तथा उसकी पत्नी पारासरीसे स्थावर नामका पुत्र, एवं १२. ब्रह्मदेव (२२) । [ दुसरी सन्धि ]
मरीचिका वह जीव ब्रह्मदेव मगधदेश स्थित राजगृहके राजा विश्वभूतिके यहां विश्वनन्दि नामक पुत्रके रूपमें उत्पन्न हआ। राजा विश्वभूतिका छोटा भाई विशाखभूति था, जिसके विशाखनन्दि नामका पुत्र हुआ (१-४)।
राजा विश्वभूतिने अपने पुत्र विश्वनन्दिको युवराज-पद देकर तथा अपने अनुज विशाखभूतिको राज्य सौंपकर जिनदीक्षा ग्रहण कर ली (५)।
विश्वनन्दिने अपने लिए एक सुन्दर उद्यानका निर्माण कराया और उसमें वह विविध क्रीड़ाएँ कर अपना समय व्यतीत करने लगा। इधर एक दिन विशाखनन्दिने उस उद्यानको देखा तो वह उसपर मोहित हो गया और उसे हड़पनेके लिए लालायित हो उठा। उसने अपने माता-पितासे कहा कि जैसे भी हो, विश्वनन्दिका यह उद्यान मुझे मिलना चाहिए (६)। राजा विशाखभूति अपने पुत्रके हठसे बड़ा चिन्तित हआ। जब वह स्वयं उसपर कुछ न सोच सका तो उसने अपने कीर्ति नामक मन्त्रीको बुलाया और उसके सम्मुख अपनी समस्या रखी। मन्त्रीने विशाखभूतिको न्यायनीति पर चलनेकी सलाह दी और आग्रह किया कि वह विशाखनन्दिके हठाग्रहसे विश्वनन्दिके उपवनको लेनेका विचार सर्वथा छोड़ दे (७-९)। किन्तु विशाखभूतिको मन्त्रीकी यह सलाह अच्छी नहीं लगी, अतः उसने उसकी उपेक्षा कर छल-प्रपंचसे युवराज विश्वनन्दिको तो कामरूप नामके एक शत्रुसे युद्ध करने हेतु भेज दिया और इधर विशाखनन्दिने अवसर पाते ही उस नन्दनवन पर अपना अधिकार जमा लिया। जब विश्वनन्दिने अपने एक सेवकसे यह वृत्तान्त सुना, तो वह उक्त शत्रुको पराजित करते ही तुरन्त स्वदेश लौटा और निरुद्ध नामक अपने मन्त्रीको मन्त्रणासे उसने विशाखनन्दिसे युद्ध करनेका निश्चय किया (१०-१४)। वह अपने योद्धाओंके साथ विशाखनन्दिके सम्मख गया और जैसे ही उसे ललकारा, वैसे ही वह डरपोक विश्वनन्दिके चरणों में गिरकर क्षमा-याचना करने लगा (१५)। सरल स्वभावी विश्वनन्दिने उसे तत्काल क्षमा कर दिया, फिर विश्वनन्दि स्वयं अपने किये पर पछतावा करने लगा-"मैंने व्यर्थ ही एक तुच्छ उद्यानके लिए इतना बड़ा युद्ध किया और निरपराध मनुष्योंको मौतके घाट उतारा।" यह विचार कर वह संसारके प्रति अनित्यताका ध्यान करने लगा । अवसर पाकर उसने शीघ्र ही जिनदीक्षा ग्रहण कर ली।
इधर जब विशाखभूतिने विश्वनन्दिकी दीक्षाका समाचार सुना तो वह भी अपनी दुर्नीति पर पछताने लगा और शीघ्र ही अपने पुत्र विशाखनन्दिको राजपाट देकर स्वयं दीक्षित हो गया। विशाखनन्दिका जीवन निरन्तर छल-प्रपंचोंसे भरा था। अतः राज्य-लक्ष्मीने उसका साथ न दिया। प्रजाजनोंने उसके अन्याय एवं अत्याचारों से दखित एवं क्रोधित होकर उसे बलात राजगही से उतार दिया (१६)।
किसी अन्य समय पूर्वोक्त मासोपवासी मुनि विश्वनन्दि ( पूर्व का युवराज ) मथुरा नगरीमें भिक्षा हेतु विचरण कर रहे थे कि वहाँ नन्दिनी नामकी एक गायने उन्हें सींग मारकर घायल कर दिया। संयोगसे विशाखनन्दिने उन्हें घायल देखकर पूर्वागत ईर्ष्यावश उनका उपहास किया। विश्वनन्दिको विशाखनन्दिका यह व्यवहार सह्य नहीं हुआ। उन्हें उसपर क्रोध आ गया और उन्होंने तत्काल ही क्षमा-गुण त्याग कर-“यदि मेरी तपश्चर्याका कोई विशिष्ट फल हो तो ( अगले भवमें ) समरांगणको रचाकर निश्चय ही इस अनिष्टकारी वैरीको मारूंगा।" इस प्रकार कहकर अपने मनमें उसके मारने का निदान बाँधा और तपके प्रभावसे मरकर वह महाशुक्रदेव हुआ (१७)। इधर मुनिराज विशाखनन्दि भी कठोर तपश्चर्या के फलस्वरूप मरकर देव हुआ और वहाँसे चयकर वह विजया की उत्तर-श्रेणीमें स्थित अलकापुरीके विद्याधर राजा मोरकण्ठकी रानी
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