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वड्डमाणचरिउ आकाशमें मेघोंके एक सुन्दर कूटको देखा। उसी समय वे जब अपने सिरका एक पलित केश देख रहे थे कि तभी आकाशमें वह मेघकूट विलीन हो गया (१३)। मेघकूटको सहसा ही विलीन हुआ देखकर राजा नन्दिवर्धनको संसारकी अनित्यताका स्मरण होने लगा। वे विचार करने लगे कि विषके समान सांसारिक सुखोंमें कौन रति बाँधेगा? संसारके सभी सुख जलके बुदबुदेके समान हैं। यह जीव भोग और उपभोगकी तृष्णामें लीन रहकर मोहपूर्वक गृह एवं गृहिणीमें निरन्तर आसक्त बना रहता है और इस प्रकार दुस्सह एवं दुरन्त दुःखोंवाले संसाररूपी लौह-पिंजड़ेमें वह निरन्तर उसी प्रकार डाल दिया जाता है, जिस प्रकार सुईके छिद्र में तागा। इस प्रकार विचार करके उन्होंने नन्दनको अनेक व्यावहारिक शिक्षाएँ देना प्रारम्भ किया और स्वयं तपोवनमें जानेकी तैयारी करने लगे (१४-१५)। किन्तु नन्दन स्वयं ही संसारके प्रति उदास था, अतः वह पिताके समक्ष तपस्या हेतु वनमें साथ ले चलनेका आग्रह करने लगा (१६) । नन्दिवर्धनने उसे जैसे-तैसे अपने कर्तव्यपालनका उपदेश दिया एवं स्वयं ५०० नरेशोंके साथ मुनिराज पिहिताश्रवसे जिनदीक्षा धारण कर ली (१७)। [ पहली सन्धि ]
पिताके दीक्षा ले लेनेके कारण राजा नन्दन अत्यन्त किंकर्तव्यविमूढ़ हो गया, किन्तु शीघ्र ही मनका समाधान कर वह राज्य-संचालन में लग गया। उसने अपने प्रताप एवं पराक्रमके द्वारा 'नृपश्री' का विस्तार किया। इसी बीच रानी प्रियंकराने गर्भ धारण किया (१-२) और उससे नन्द नामक एक सुन्दर पुत्रकी प्राप्ति हुई। किसी एक समय ऋतुराज वसन्तका आगमन हुआ और वनपालने उसी समय राजा नन्दनको प्रोष्ठिल नामक एक मुनिराजके वनमें पधारने की सूचना दी। इस सूचनासे राजा नन्दनने अत्यन्त प्रसन्न होकर सदलबल उन मुनिराजके दर्शनोंके हेतु वनमें प्रस्थान किया (३-५) । वनमें मुनिराजको देखते ही उसने विनय प्रदर्शित की तथा अपने भवान्तर पूछे (६)।
प्रोष्ठिल मुनिने राजा नन्दनके भवान्तर सुनाने प्रारम्भ किये और बताया कि वह ९वें भवमें गौरवरांग नामक पर्वतपर एक रौद्र रूपवाले भयंकर सिंहके रूपमें उत्पन्न हुआ था, किन्तु अमितकीति और अमृतप्रभ नामक दो चारण मुनियोंके धर्मोपदेशसे उसे मनुष्यगति प्राप्त हुई और पुष्कलावती देश स्थित पुण्डरीकिणी नगरीमें पुरुरवा नामक शबर हुआ तथा वहाँसे भी मरकर मुनिराज सागरसेनके उपदेशसे वह सुरौरव नामक देव हुआ (७-११) । उसके बाद कविने विनीता नगरीका वर्णन कर वहाँके सम्राट ऋषभदेव तथा उनके पुत्र भरत चक्रवर्तीका वर्णन किया है (१२-१३)। आगेके वर्णन-क्रममें कविने भरतपुत्र मरीचिका वर्णन किया है, जिसमें उसने बताया है कि मरीचिने अपने पितामह ऋषभदेवसे जिनदीक्षा ग्रहण की। प्रारम्भमें उसने घोरतपस्या की, किन्तु बादमें वह अहंकारी हो गया। अतः जैन-तपस्यासे भ्रष्ट होकर उसने सांख्य-मतकी स्थापना की (१४-१५)। कविने मरीचिके भवान्तर-वर्णनोंके प्रसंगमें उसके निम्न भवान्तरोंकी चर्चा की है
१. कौशलपुरीके ब्राह्मण कपिल भूदेवके यहाँ जटिल नामक विद्वान् पुत्रके रूपमें, २. सौधर्म देवके रूपमें (१६), ३. स्थूणागार ग्रामके विप्र भारद्वाज तथा उनकी पत्नी पुष्यमित्राके यहाँ पुष्यमित्र नामक पुत्रके रूपमें, ४. ईशानदेव, ५. श्वेतानगरीके द्विज अग्निभूति तथा उसकी भार्या गौतमीसे अग्निशिख नामका पुत्र, ६. सानत्कुमार देव, ७. मन्दिरपुर निवासी विप्र गौतम तथा उसकी पत्नी कौशिकीसे अग्निमित्र नामक पुत्र (१७-१८), ८. माहेन्द्र देव, ९. शक्तिवन्तपुरके विप्र संलंकायन तथा उसकी पत्नी मन्दिरासे भारद्वाज नामका पुत्र,
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