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वड्डमाणचरिउ वणिवइ भविसयत्तहो चरित्तु पंचमि उववासह फलु पवित्तु । महु पुरउ समक्खिय वप्प तेम पुवायरियहिं भासियउ जेम । तं णिसुणेविणु कइणा पउत्तु
भो सुप्पढ पई वज्जरिउ जुत्तु । जइ मुज्झ समत्थि णउ करेमि हउँ अज्जु कहब णिरु परिहरेमि । ता किं आयइ महु बुद्धियाइ कीरइ विउलाए स-सुद्धियाइ। पत्ता-किं बहुणा पुणु-पुणु भगिएँ सावहाणु विरएवि मणु ! .
भो सुप्पढ महमइ जाणिय भवगइ ण गणमि हउँ मण पिसुणयणु ।
x x x x इय सिरि भविसयत्तचरिए विबुह-सिरि-सुकइ-सिरिहर-विरइए साहु णारायणभज्ज रुप्पिणि णामंकिए भविसयत्त-उप्पत्तिवण्णणो णाम पढमो
परिच्छेओ समत्तो ॥संधि १।। अन्तिम भागणरणाह विक्कमाइच्चकाले
पवहतए सुहयारए विसाले । वारह-सय वरिसहिं परिगएहिं दुगुणिय पणरह वच्छर-जुएहिं । फागुण मासम्मि बलक्ख पक्खे दसमिहि दिणे तिमिरुक्करविवक्ख । रविवार समाणिउ एउ सत्थे
जिइ मई परियाणिउ सुप्पसत्थु । भासिउ भविस्सयत्तहो चरित्तु पंचम उववासहो फलु पवित्तु ।
[ आमेर भण्डार, लिपि सं. १५३० ]
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