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परिशिष्ट-१ (ग)
सुकुमालचरिउ प्रशस्ति [ रचनाकाल : वि. सं. १२०८ ]
१११ सिरि पंच गुरुहँ पय पंकयइ पणविवि रंजिय समणहँ । सुकमाल-सामि कुमरहो चरिउ आहासमि भव्वयणहँ ।।
११२ एक्कहिं दिणे भव्वयण-पियारए बलडइ णामें गामे मणहारए । सिरि गोविंदचंद णिव पालिए जणवइ सुहयारयकर लालिए। दुगणिय बारह जिणवर मंडिए पवणणुद्ध धयवड अवरुंडिए । जिणमंदिरे वक्खाणु करते
भव्वयणहँ चिरु दुरिउ हरतें। कलवाणीए बुहेण अणिंदें
पोमसेण णामेण मुणिंदें। भासिउ संति अणेयई सत्थई जिणसासणे अवराई पसत्थई। पर सुकमाल-सामिणा मालहो कररुह मुह विवरिय वरवालहो । चारु-चरिउ महुँ पडिहासइ तह गोवरु बुहयण मणहरणु वि जह । तं णिसुणेवि महियले विक्खाएँ पयड साहु पीथे तणु जाएँ। सलखण जणणी गम्भुप्पण्ण
पउमा भत्तारेण रवणें । सहरसेण कुबरेण पउत्तउ
भो मुणिवर पई पभणिउ जुत्तउ । तं महु अग्गइ किण्ण समासहि विवरेविणु माणसु उल्लासहि । ता मुणि भणइ बप्प जइ णिसुणहि पुव्व-जम्म-कय दुरियई विहुणहि । घत्ता-अब्भत्थिवि णिरु सिरहरु सुकइ तच्चरित्तु विरयावहि ।
इह रत्ति वि कित्तिणु तव तणउ सुहु परत्थे धुउ पावहि ॥२॥ ता अण्णहि दिणि तेण छइल्लें जिणभणियागम सत्थ रसल्लें। कइ सिरिहरु विणएण पउत्तउ तहु परियाणिय जुत्ताजुत्तउ । तुहुँ बुहु हियय सोक्ख-वित्थारणु भवियण मण-चिंतिय सुहकारणु । जइ सुकमालसामि-कह अक्खहि विरएविगु महु पुरउ ण रक्खहि । ता महु भणहु सुक्खु जाइय लइ तं णिसुणेवि भासइ सिरिहरु कइ ।
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