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________________ १०. ३५. १३ ] हिन्दी अनुवाद प्रथम युगलमें देवोंकी उत्कृष्ट आयु ( कुछ अधिक) दो सागर, दूसरे युगल में सात सागर, तीसरे युगलमें दस सागर, चौथे युगलमें चौदह सागर, पांचवें युगलमें सोलह सागर, छठे युगलमें अठारह सागर, सातवें युगलमें बीस सागर, आठवें युगलमें बाईस सागर जानना चाहिए और सुनो, ५ इसके ऊपर पुनः एक-एक सागर उस समय तक बढ़ाते जाना चाहिए, जबतक उसकी संख्या हे सुरेश्वर, अन्तिम सुरगृहमें तैंतीस सागर तक न हो जाये ( अर्थात् प्रथम ग्रैवेयकमें तेईस सागर, दूसरे ग्रैवेयकमें चौबीस सागर, तीसरेमें पचीस सागर, चौथेमें छब्बीस सागर, पाँचवेंमें सत्ताईस सागर, छठवेंमें अट्ठाईस सागर, सातवेंमें उनतीस सागर, आठवें ग्रैवेयकमें तीस सागर, नौवें ग्रंवेयकमें एकतीस सागर, नौ अनुदिशोंमें बत्तीस सागर और पाँच अनुत्तर विमानोंमें तैंतीस सागर )। १० प्रथम दो स्वर्गवाले देव प्रथम नरक तक, अगले दो स्वर्ग वाले देव दूसरे नरक तक, फिर अगले चार स्वर्गवाले देव तीसरे नरक तक.फिर अगले चार स्वर्गवाले देव चौथे नरक तक, पुनः अगले चार स्वर्गवाले देव पांचवें नरक तक और पुनः अगले चार स्वर्गवाले छठे नरक तक अनुक्रमसे अवधिज्ञान द्वारा नीचे-नीचेकी ओर जानते हैं। जिस प्रकार नौ ग्रैवेयक सुधाशीदेव सातवें नरकके तल तक अपने अवधिज्ञानसे निरीक्षण करते हैं, उसी प्रकार अनुदिशवासी देव १५ तथा समस्त दिशाओंको उद्योतित करनेवाले पाँच अनुत्तरवासी देव अपने अवधिज्ञानसे जानते हैं। वे देव अपने-अपने विमानोंसे ऊपरकी ओर जहाँ तक जा सकते हैं वहीं तकके विषय अपने अवधिज्ञानसे जानते हैं। व्यन्तर देव पाँच-पाँच सौ योजन तक अपने अवधिज्ञानसे जानते हैं। ज्योतिषी देव संख्यात योजन तक जान सकते हैं। चन्द्र, सूर्य, गुरु, तारे एवं मंगल एक कोटि योजन तक जानते हैं। इसी प्रकार शुक्र देव संख्यातसे कुछ अधिक योजन दूर तकके विषयको २० जानते हैं। इस प्रकार हे शुक्र, मैंने देवोंके अवधिज्ञानके गुणोंको कहा । तुझसे छिपाया नहीं है। घता-अपवित्र रत्नप्रभा नामक प्रथम नरकके नारकी अपने कुअवधिज्ञानसे एक योजन तक जानते हैं। दूसरे नरकवाले ३३ कोश, तीसरे नरकवाले तीन कोश, चौथे नरकवाले २३ कोश, पाँचवें नरकवाले दो कोश, छठे नरकवाले १३ कोश तथा सातवें नरकवाले एक कोश योजन, इस प्रकार क्रमशः आधा-आधा कोश कम-कम जानते हैं ॥२२७|| २५ ३५ आहारको अपेक्षा संसारी प्राणियोंके भेद समस्त जीवोंके कर्माहार होता है। भव एवं भाववाले शरीरधारियोंके नोकर्माहार होता है। वृक्षोंका लेप्याहार देखा जाता है तथा मनुष्यों एवं तिथंचोंका कवलाहार होता है। पक्षीसमूहोंका ऊर्जा अथवा ओजका आहार होता है। चतुनिकाय देवोंका चित्त (मानसिक) आहार होता है। अनुपम रूपधारी एवं ज्ञानी कल्पोपपन्न और कल्पातीत देवोका हर्ष प्रकट करनेवाला जितने सागरका आयुष्य है, उतने ही हजार वर्ष बीत जानेपर उन देवोंका मन-चिन्तित आहार ५ होता है। उनकी आयुके उतने ही पक्ष बीत जानेपर उनकी एक ओरकी श्वास होती है। जिनजिन देवोंकी एक पल्यकी आयु होती है वे समर्थ देव भिन्न मुहूर्त के बाद श्वास लेते हैं। कोई-कोई देव एक-एक पक्षके बाद श्वास लेते हैं, जिनेन्द्रने ऐसा निष्पक्ष भावसे कहा है। असुरकुमार जातिके देव एक हजार वर्षसे कुछ अधिक बीत जानेपर आहार ग्रहण करते हैं। उनका वह आहार सुरस, सूक्ष्म, शुद्ध, मिष्ट, सुरभित, स्निग्ध एवं अपने मनके अनुकूल इष्ट १० होता है। मन-चिन्तित वह आहार देहमें स्थिर रूपसे क्षण-भरमें परिणमाता है । संसारी असुधर Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001718
Book TitleVaddhmanchariu
Original Sutra AuthorVibuha Sirihar
AuthorRajaram Jain
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1975
Total Pages462
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Story, Literature, & Religion
File Size9 MB
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