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________________ १०.३२. १४] हिन्दी अनुवाद २६५ प्रथम तीन ग्रैवेयकोंके विमानोंकी ऊँचाई दो सौ योजन तथा मनोज्ञ मध्यम तीन ग्रैवेयकोंमें एक सौ पचास योजनकी ऊँचाई मानो। उपरिम |वेयकोंमें एक सौ योजन तथा नव-नवोत्तर अनुदिशोंमें पचास योजनकी विमानोंकी ऊँचाई जिनवरने कही है। पुनः ऊपरके पाँच अनुत्तर विमानोंकी पचीस योजनकी ऊँचाई शोभित रहती है। उसके आगे सर्वार्थसिद्धिको छोड़कर बारह योजन १० आकाशको लाँघकर वहाँ तीनों लोकोंके शिखरपर स्थित केवली अरहन्त द्वारा जानी हुई झिलमिल-झिलमिल करती हुई श्वेत छत्रके समान शुद्ध सिद्ध-समूहोंसे युक्त सिद्धशिला है, जो कि पिण्ड ( मध्य ) में आठ महायोजन प्रमाण मोटी एवं पैंतालीस लाख योजन चौड़ी है। . ( देवोंकी उत्पत्तिका वर्णन-) देव अपने विमानोंके भीतर शय्याके मध्यमें भिन्न मुहूर्तमें समयके नियोगसे पूर्वोपार्जित श्रेष्ठ धर्मके प्रभाव तथा अबाध पुण्यकी सहायतासे शरीरको धारण १५ करते हैं। घत्ता-तथा वे समचतुरस्र शरीरके साथ उत्पन्न होते हैं । वैक्रियक शरीरोंसे युक्त वे । मनुष्योंकी आकृति धारण कर कटक, हार, केयूर आदि भूषणोंसे सुशोभित रहते हैं ।।२२४।। देवोंकी शारीरिक स्थिति आकाशकी तरह ही देव मल-पटलसे रहित होते हैं। देवांगनाओंके हाथों द्वारा निश्चय ही चामरोंसे वीजित रहते हैं । उन देवोंकी देह निर्मल एवं समस्त ( शारीरिक ) लक्षणोंसे समाश्रित तथा सहज आभरणोंकी शोभासे शोभित रहती है। उनके नेत्र निनिमेष एवं अविचल तथा मुख चन्द्रमाके समान सुन्दर होता है । उनके मुखको सुगन्धिसे दिशामुख सुगन्धित रहते हैं । चर्म, रोम, शिरा, नख, पुरीष ( मल ), रक्त, पित्त, मूत्र, मज्जा, मांस, शुक्र, कफ, हड्डी, कवलाहार, अस्थि, पूय (पीप ) एवं रसमिश्रित केश ये सब दोष स्वभावसे ही उनके शरीरमें नहीं होते। ताप-ज्वर आदि रोगोंसे भी वे कभी पीड़ित नहीं होते। परिमल-सुख स्वयं ही प्रकट होते हैं, उपकार करनेकी शक्ति भी उनमें स्पष्ट रूपसे रहती है। देवयोनि-सम्पुट अत्यन्त अनुपम एवं मनोरम है तथा अपने रूपसे वह रतिवर-कामदेवको भी पराजित करता है। वे हर्षसे परिपूर्ण मन होकर निकलते हैं, ( उन्हें देखकर ) देवगण जय-जय शब्दका घोष करते हैं। मन्त्रिजन एवं परिजन (उन्हें देखकर) मनमें आनन्दित रहते हैं। बन्दीजन उन्हें 'जिओ' 'आनन्दित रहो' कहा करते हैं। ___ असुरकुमारोंका शरीर पचीस धनुष ऊँचा होता है। शेष भवनवासी और व्यन्तरोंका शरीर दस धनुष ऊँचा होता है । ज्योतिषी देवोंका शरीर सात धनुष ऊँचा तथा सौधर्म एवं ईशान कल्पके देवोंका शरीर सात हाथ ऊँचा मानो। घत्ता-पुनः ऊपर-ऊपरके देवोंके शरीरका उत्सेध बुद्धिपूर्वक आधा-आधा तोड़ना चाहिए। सर्वार्थसिद्धि में उत्पन्न देवोंका शरीर एक रत्नि प्रमाण ऊँचा कहा गया है। ॥२२५॥ .... ३४ www.jainelibrary.org १० Jain Education International For Private & Personal Use Only
SR No.001718
Book TitleVaddhmanchariu
Original Sutra AuthorVibuha Sirihar
AuthorRajaram Jain
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1975
Total Pages462
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Story, Literature, & Religion
File Size9 MB
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