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________________ १०. ३१.५ ] हिन्दी अनुवाद २६३ घत्ता - और भी - कि वनोंमें, गगनतलमें, सरोवरोंमें, समुद्री तटोंपर लक्ष्मीगृह — कमलों में ( अथवा कोषागारों में ) संघात रहित एवं मनोहर विपुल मात्रामें व्यन्तरोंके नगर होते हैं ॥२२२॥ ३० स्वर्ग में देव विमानोंकी संख्या पृथिवी तसे ७९० योजन (ऊपर) आकाश लाँघकर मनुष्य-लोकसे ऊपर-ऊपर ज्योतिषी देवोंके महान् आवास परिस्थित हैं । वे अधं कपित्थके आकारवाले हैं, जो असंख्यात द्वीपोंमें विस्तृत हैं । वे विशाल विमान भी असंख्यात हैं, जो विविध मणियोंसे युक्त तथा आनन्दरूपी रस प्रदान करनेवाले हैं । द्युतिसे दीप्त समस्त ज्योतिषी देवोंके पिण्डका कुल क्षेत्र ११० योजन क्षेत्र में ) है | वह पिण्ड मनुष्य लोकसे बाहर स्थित है, ( स्वभावसे) स्थिर है तथा उसमें घण्टे ५ लटकते रहते हैं, जो बड़े ही सरस, रुचिर एवं ध्वनिवाले होते हैं । आकाश इन्द्रनील मणिकी किरणोंसे स्फुरायमान वह स्वर्गलोक सुमेरु पर्वतकी चूलिकाके ऊपर स्थित है। उन दोनों ( सुमेरुचूलिका एवं स्वर्गलोक ) का अन्तर मात्र एक बाल ( केश ) बराबर है, ऐसा जिनेन्द्रने अपने केवलज्ञानसे देखकर कहा है । १० उस स्वर्गंलोकमें सर्वप्रथम सौधर्मं स्वर्गके विमान हैं, जिनकी संख्या आठ गुने चार लाख अर्थात् बत्तीस प्रमाण है । निर्मल सुखके स्थान दूसरे ईशान स्वर्ग में अट्ठाईस लाख विमान हैं । जिस प्रकार तीसरे सनत्कुमारके बारह लाख विमान कहे गये हैं, उसी प्रकार चौथे माहेन्द्र स्वर्ग में आठ लाख विमान कहे गये हैं । पाँचवें ब्रह्म स्वर्गं एवं छठे ब्रह्मोत्तर स्वर्ग में दो-दो अर्थात् चार लाख विमान हैं । पुन: सातवें लान्तव स्वर्ग एवं आठवें कापिष्ठ स्वर्ग में पचास हजार, नौवें शुक्र स्वगं एवं दसवें महाशुक्र स्वर्गमें चालीस हजार विमान जानो । पुनः ग्यारहवें शतार स्वर्गं एवं बारहवें १५ सहस्रार स्वर्ग में छह हजार विमान जानो और अपनी भ्रान्ति छोड़ो । पुनः तेरहवें आनत स्वगं, चौदहवें प्राणत स्वर्ग, पन्द्रहवें आरण स्वर्गं एवं सोलहवें अच्युत इन चार स्वर्गोंमें सात सौ विमान जिनवरने अपने केवलज्ञानसे देखकर कहे हैं । हे शतमख - इन्द्र, प्रथम तीन ग्रैवेयकोंमें ११ युक्त १०० अर्थात् १९९ विमान कहे गये हैं । दूसरे तीन ग्रैवेयकोंमें १०७ विमान तथा तीसरे तीन ग्रैवेयकमें ९१ विमान जानो । नव-नवोत्तर २० अनुदिशोंमें ९ विमान निर्दिष्ट किये गये हैं तथा ५ अनुत्तरोंमें ५ विमान कहे गये हैं । धत्ता - पचासी लाख में से तीन हजार घटाकर तेईस जोड़ दीजिए। ये जितने होते हैं उतने ही उन देव विमानोंमें जिन मन्दिर हैं । अर्थात् ८५००००० - ३००० + २३ = ८४९७०२३ जिन मन्दिर ॥२२३॥ ३१ देव विमानोंकी ऊँचाई मुनीश्वरोंने प्रथम दो कल्पोंमें उन विमानोंकी ऊँचाई छह सौ योजन कही है । उसके ऊपरवाले दो कल्पोंमें विमानोंको ऊँचाई पाँच सौ योजन कही गयी है । उसके बाद के दो कल्पोंमें विमानोंकी ऊँचाई चार सौ पचास योजन प्रकाशित की गयी है । उसके अगले दो कल्पोंमें चार सौ योजनकी ऊँचाई जानो, इसमें महाभ्रान्ति मत करो । तत्पश्चात् अगले दो कल्पोंमें तीन सौ पचास योजन तथा उसके बाद पुनः दो कल्पोंमें तीन सौ योजनकी ऊँचाई कही गयी है । पुनः अगले चार स्वर्गों में उत्तम विमानोंकी ऊँचाई दो सौ पचास योजनकी कही गयी है । Jain Education International For Private & Personal Use Only ५ www.jainelibrary.org
SR No.001718
Book TitleVaddhmanchariu
Original Sutra AuthorVibuha Sirihar
AuthorRajaram Jain
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1975
Total Pages462
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Story, Literature, & Religion
File Size9 MB
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