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________________ १०.२५. १३ ] हिन्दी अनुवाद २५५ २४ नरकके दुखोंका वर्णन उन नरकोंमें न तो कोई मध्यस्थ है, और न ही कोई दुःखापहारी मित्र एवं करुणाधारी स्वामी अथवा बन्धु ही । वहाँ उन नारकियोंका विकारी वेश ही देखा जाता है ( अर्थात् शरीरके तिल-तिल खण्ड करके फेंक दिया जाता है )। रोषसे जिनके नेत्र लाल बने रहते हैं तथा जो अपने महान् उद्वेगको नहीं छोड़ पाते । वहाँ क्षेत्रका स्वाभाविक दुख स्पष्ट है। वहाँ वृक्षों द्वारा किये गये ध्वस्त अंगोंके विषयमें ५ क्या कहा जाये ? वहाँके समस्त भूमि-प्रदेश सुईके समान नुकीले तेज हैं, कोई भी प्रदेश सुखदायक अथवा सारभूत नहीं हैं। वहाँ खर, दुर्धर, चण्ड, शीत, उष्ण एवं शीतोष्ण वायुएँ बहा करती हैं। वे वज्राघातके समान ही महादुस्सह होती हैं। महीजात वृक्षोंके पत्ते अत्यन्त निस्त्रिश ( क्रूर ) असिके समान रहते हैं। उन वृक्षोंके फल- १० समूह कठोर एवं रसरहित होते हैं। वे नारकियोंके अधीर शरीरों पर देखते ही देखते उनपर गिर पड़ते हैं और उनका विदारण कर डालते हैं । अपनी भीषण विक्रिया ऋद्धिसे मृगाधीशका भयानक मुख बनाकर (परस्परमें अपने ही) महान हृदय-रन्ध्रोंको खा जाते हैं तथा वे नारकी दुष्ट परस्परमें मिलकर प्रज्वलित प्रभासे चट-चट करनेवाली ज्वालावलीमें प्रवेश कर जाते हैं। तुरन्त दौड़ते हुए, स्फुरायमान, तलवारके समान हाथोंवाले, प्रमाणरहित शरीरवाले तथा कुरूप एवं धौकनीके १५ समान मुखवाले होते हैं । क्षुद्र निद्रारहित ऋक्षेन्द्र-समूह अपनी चंचुओं द्वारा विदीर्ण करके गिरोन्द्र जैसी अग्नि भी खा जाते हैं। घत्ता-वहाँ वैतरणी ( नदी बहती है जिस ) का पानी विषके समान है, जिसके पीने मात्रसे मूर्छा आ जाती है तथा जो हृदयको विशेष रूपसे जला डालता है तथा नाना प्रकारको वेदना उत्पन्न करता है ।।२१७।। २० २५ नरकभूमिके दुख-वर्णन उन नरकभूमियों में कृमियो से भरे हुए खून एवं पीबके आलय, दुःस्वादु जलके परिपूर्ण एवं प्राणों को तत्काल हर लेनेवाले अति सुविशाल कुण्ड बने हुए हैं। उन कुण्डों में स्नान कर निकले हुए एवं महान् भयसे भरे हुए नारकियो के साथ वे ( अन्य नारकी ) अपने-अपने प्रचण्ड भुजदण्डोंसे युद्ध करके शरीरों को त्रस्त कर देते हैं। फिर वे रणातुर होकर परस्परमें ही एक दूसरेको काटकाटकर वस्त्र-विहीन कर देते हैं और अग्निसे तपाये हुए लौहमय आभूषणों को पहना देते हैं। ५ जहाँ-जहाँ अनेक दुखों से भरे हुए उत्तम सुखोंको देखते हैं, उन्हींकी इच्छा करने लगते हैं। किन्तु वहाँ-वहाँ पापप्रकाशक यमराजका शासन रहता है। जहाँ-जहाँ देखकर वे ( नारकी) निष्ठुर आसन लेकर बैठते हैं, वहीं-वहीं प्रतिकूल एवं तीक्ष्ण त्रिशूल बन जाते हैं। जहाँ-जहाँ वे शरीरके आधारके लिए जरा-सा भी आहारका ग्रास लेते हैं, वहीं-वहीं वे अति दुर्गन्धिपूर्ण स्पर्श-विरुद्ध (विषैली मिट्टी अर्थात् विष्ठा ) बन जाते हैं, ऐसा जिनेन्द्र कहते हैं। इस १० Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001718
Book TitleVaddhmanchariu
Original Sutra AuthorVibuha Sirihar
AuthorRajaram Jain
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1975
Total Pages462
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Story, Literature, & Religion
File Size9 MB
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