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________________ १०.१९.१५] हिन्दी अनुवाद २४७ भोग करते हैं । फिर एक पल्यको आयु पाकर, जीवित रहकर, ( तदनन्तर ) मृत्यु प्राप्त कर तत्क्षण ही वैक्रियक शरीर प्राप्त कर भवनवासी देवोंमें उत्पन्न हो जाते हैं जो कि सुन्दरतर शंख बजाया करते हैं। इस प्रकार तीस भोगभूमियोंके समुज्ज्वल ( देवोपम ) जीव विद्युत्को भी नीचा दिखानेवाली अपनी देहकी दीप्तिसे युक्त तथा अपने पूण्य यशसे महीतलको भर देनेवाले और वलक्ष १० (धवल ) अरुण, हरित, पीत वर्णवाले होते हैं। वे कंकण, कुण्डल एवं कटकसे विभूषित तथा खलजनोंके खर वचनोंसे अदूषित रहते हैं। (१) मदिरांग, (२) वस्त्रांग, (३) भूषणांग, (४) वाद्यांग, (५) ज्योतिरंग, (६) दीपकांग (७) भाजनांग, (८) कुसुमांग, (९) भोजनांग एवं (१०) भवनांग नामक कल्पवृक्ष उन भोगभूमियोंपर छाये हुए रहते हैं, जो वहाँके मनुष्योंको भोग्य वस्तुएँ प्रदान किया करते हैं। घत्ता-ये भोगभूमियाँ जघन्य, मध्यम और उत्तमके भेदसे तीन प्रकारकी हैं। वहाँ इन्द्रों द्वारा उत्तम चमर ढुराये जाते हैं। वहाँके जीव एक पल्य, दो पल्य एवं तीन पल्य तक जीवित रहकर पुनः मरकर कल्पवासी देव हो जाते हैं ।।२११॥ प्राचीन भौगोलिक वर्णन-भोगभूमियोंका काल-वर्णन तथा ___ कर्मभूमियोंके आर्य-अनार्य तीस भोगभूमियाँ ध्रुव कही गयी हैं, ( हैमवत, हैरण्यवत, हरि, रम्यक, देवकुरु, उत्तरकुरु इस प्रकार छह क्षेत्र पाँच मेरु सम्बन्धी)। इस प्रकार तीस भोगभूमियाँ हुईं ( इन्हें ध्रुव भोगभूमियाँ कहा गया है )। वे अपने-अपने कालके गुणोंसे समाश्रित हैं ( अर्थात् देवकुरु-उत्तरकुरुमें पहला काल, हरि व रम्यक क्षेत्रोंमें दूसरा काल, हैरण्यवत व हैमवत क्षेत्रोंमें तीसरा काल है)। अब पाँच भरत तथा पाँच ऐरावत क्षेत्रकी दस अध्रव कर्मभमियोंको कहता हैं। जिनभाषित ५ आगम-वचनोंके अनुसार ही कहूँगा। हे शतमख, उसे सुनो पन्द्रह प्रकार की कर्मभूमियोंमें मानवोंकी उत्पत्ति समझो। आर्य-अनार्य भावसे विभूषित दो प्रकारके मनुष्य हैं । जो मिथ्यात्वादि क्रूर कर्मोसे विदूषित हैं, वे अनार्य अथवा म्लेच्छ कहे गये हैं। वे निर्वस्त्र, दीन रहते हैं, वे कर्कश, बर्बर गूंगे होते हैं। अन्य अनार्य नाहल ( वनचर ), शबर, पुलिन्द आदि हरिणोंके सींगों द्वारा खोदे गये कन्दोंको खाते हैं। आर्य मनुष्य ऋद्धिवन्त व ऋद्धि रहितके दो भेदोंसे अनेक प्रकारके होते हैं। ऋद्धिवन्त आर्य तीर्थंकर, हलायुध, केशव, प्रतिकेशव, चक्रायुध होते हैं तथा और भी विद्याधर चारण ऋषि होते हैं । जिन्होंने पशुओंके वध-बन्धनको दूरसे ही छोड़ दिया है, जो कृषिकार्य करते हैं, वे ऋद्धिरहित आर्य कहलाते हैं जो अनेक भेदवाले होते हैं, ऐसा निर्मल केवलज्ञानरूपी नेत्रसे देखा गया है। जिनवर जघन्य रूपसे ७२ वर्षकी आयु, अपने ज्ञानका उत्कर्ष करते हुए जीवित १५ रहते हैं। सुखोंके भाजन नारायण जघन्य रूपसे १ सहस्र वर्षसे कुछ अधिक जीवित रहते हैं । उनसे भी कुछ अधिक आयु सीरी-बलदेव को होती है। चक्रवतियोंकी संख्या ७०० कही गयी है। जैसा आगमोंमें बताया गया है उसके अनुसार उनकी उत्कृष्ट आयु सुनो। घत्ता-जिस प्रकार नारायणकी उत्कष्ट आयु ८४ लाख पूर्व कही गयी है, उसी प्रकार बलदेवकी भी समझो। कर्मभूमिमें जन्मे हुए मनुष्योंकी उत्कृष्ट आयु सामान्यतः एक कोटि पूर्वको २० जानो ।।२१२।। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001718
Book TitleVaddhmanchariu
Original Sutra AuthorVibuha Sirihar
AuthorRajaram Jain
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1975
Total Pages462
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Story, Literature, & Religion
File Size9 MB
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