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________________ १०. १८.५] हिन्दी अनुवाद २४५ ३४० गम्भीर गुफा स्थान हैं। गतदर्प जिनेन्द्रने २० बहुलागिरि कहे हैं। इष्वाकार पर्वत ४ हैं। जलसे भरे रहनेवाले ३० सरोवर हैं । मकरगृह-समुद्र २ कहे गये हैं। भोगभूमियाँ ३० तथा ३ गुणे ५ अर्थात् १५ कर्मभूमियाँ हैं और ६ गुने १६ अर्थात् ९६ कुभोग भूमियाँ हैं। घत्ता हे शतमख, विद्याधर राजाओंके पुरवरों ( उत्तम नगरों) की संख्या जिनेश्वरने अपने ज्ञान से जानकर ७ सौ अधिक १८ हजार अर्थात् १८७०० कही है ॥२०९।। १५ प्राचीन भौगोलिक वर्णन-द्वीप, समुद्र और उनके निवासी तिर्यग्लोक में अकृत्रिम समस्त जिनगृह ५८ मिश्रित ४ सौ अर्थात् ४५८ हैं, जो विविध रत्नमय हैं तथा ज्ञानी महामनियोंसे यक्त रहते हैं, ऐसा जिनवरने कहा है। जम्बूद्वीप को छोड़कर तटके भीतर कतिपय योजन जाकर समुद्रके मध्यमें नित्य प्रेमस्वभाववाले अज्ञानी प्राणी ठहरते हैं, कभी-कभी वहाँ प्रयाण भी करते हैं। वे सभी द्वीप प्रथम भागमें संकीर्ण हैं तथा ऊपर-ऊपरकी ओर विस्तीर्ण होते गये हैं । मल्लके ५ समान प्रयाण करते हैं। वे क्षुधा, तृषा और क्लेशसे रहित होते हैं। वे ( द्वीप ) उत्तम, मध्यम, जघन्य, अविनश्वर व अनादिकालीन निष्पन्न हैं। ३ गुने १६ अर्थात् ४८ ही लवणसमुद्र में तथा उतने ही अर्थात् ४८ कालसमुद्रमें भी होते हैं। वे परिमित योजनोंसे प्रमाणित हैं तथा केवली तीर्थंकरों द्वारा ज्ञात हैं। उन द्वीपोंमें विभूषणोंसे रहित, बच्चोंके समान तथा हर्षपूर्वक २-२ स्त्री-पुरुष (के जोड़े) निवास १० करते हैं। उनका शरीर कोमल तथा भावनाएँ निर्मल रहती हैं। कषाय एवं मद-गर्वसे सर्वथा दूर तथा कृष्ण, धवल, हरित और लाल वर्णके होते हैं। उनके कान कुण्डल-युगलसे मण्डित रहते हैं। कोई तो एक ऊरु-पैरवाले और कोई विषाण (शृंग ) धारी होते हैं। कोई वालधि-पुच्छधारी रहता है, तो कोई लम्बी पूँछधारी (और कोई वक्षधर है ) तो कोई विशेष स्कन्धधारी है। उत्तर दिशामें कोई अज्ञानी मांस भक्षण करनेवाला है तो कोई भाषणरहित (गूंगा ) है, तो कोई १५ सुस्वर जानता है। __ पत्ता-कोई प्रावरण कानवाले हैं ( अर्थात् कान ही ओढ़ना कान ही बिछौना है ) तो कोई शशके समान कर्णवाले हैं तो कोई मनुष्य लम्बकर्ण हैं और जहाँ-तहाँ कोई कुमनुष्य छिपकलीके कर्णके समान कानवाले भी हैं । वे परस्परमें लज्जा नहीं करते ॥२१०॥ १८ प्राचीन भौगोलिक वर्णन-भोगभूमियोंके विविधमुखी मनुष्योंकी ____ आयु, वर्ण एवं वहाँको वनस्पतियोंके चमत्कार हरि ( सिंह ) मुख, करिमुख, झष ( मीन) मुख, जलचर ( मगर ) मुख, श्वामुख, मृगमुख, कपिमुख, वृषमुख, मेषमुख, शरभमुख, दर्पणमुख नामके सत्त्वाधिक मनुष्य १० प्रकारके कल्पवृक्षके फलोंका भोग करते हैं और इष्ट काम-सेवन कर मनोरंजन करते हैं। अरहन्त केवली कहते हैं कि एक ऊरुवाले ( मनुष्य ) पर्वतकी गुफाओंमें रहते हैं और वहाँ मिट्टी खाते हैं। चार गुणे अर्थात् सोलह वर्ष जैसे (आयुवाले ) दिखाई पड़ते हैं । परस्त्री रचित ५ आपत्तिसे परित्यक्त हैं। अठारह वर्षकी आयु जैसे होकर निवास करते हैं और पूर्वोपार्जित कर्मोंका Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001718
Book TitleVaddhmanchariu
Original Sutra AuthorVibuha Sirihar
AuthorRajaram Jain
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1975
Total Pages462
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Story, Literature, & Religion
File Size9 MB
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