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________________ १०. १२. १८] हिन्दी अनुवाद २३९ स्पर्शनेन्द्रिय, रसना इन्द्रिय तथा घ्राणेन्द्रिय क्रमसे स्पर्श, रस और गन्ध-विषयको नौ योजन तक जानती हैं। श्रुति-कर्णेन्द्रिय बारह योजन तक के शब्दको जानती है, ऐसा जिनवरोंने कहा है तथा यह आगमोंमें स्पष्ट है। हे शतमुख-इन्द्र, चक्षु इन्द्रियका विषय सैंतालीस सहस्र दो सौ त्रेसठ ( ४७२६३ ) योजनसे कुछ अधिक है, ऐसा जानो और होनेवाली भ्रान्तिको छोड़ो। गन्ध ग्रहण करनेवाली घ्राणेन्द्रियका आकार अतिमुक्तक ( तिलपुष्प ) के तुल्य है। श्रव- १० णेन्द्रियका आकार जौकी नलीके समान जानो । नेत्रका आकार मसूरीके समान तथा जिह्वा-इन्द्रिय खुरपाके समान बखानी गयी है। स्पर्शनेन्द्रिय अनेक भावो (भाव-भंगिमाओं) का आलय है। हरित-वनस्पति एकेन्द्रिय, तथा त्रसजीवों का शरीर सुख-दुखो का घर है। (छह प्रकारके संस्थानों में से ) समचतुरस्र संस्थानको प्रथम कहा गया है जो सुखों का आश्रय होता है ( तथा वह उत्तम जीवोंको प्राप्त होता है )। छट्ठा हुण्डक संस्थान कहा गया है, १५ जो नारकी जीवों के होता है। इसी प्रकार कुब्जक, वामन, न्यग्रोध ( तथा स्वाति ) नामक संस्थान तिर्यंचो व मनुष्यों को अपने-अपने कर्मानुसार प्राप्त होते हैं। घत्ता हे शतमख, शंखावर्तयोनि, कूर्मोन्नतयोनि और वंशपत्रयोनि नामक तीन आकारयोनियाँ होती हैं। उन्हें भी स्थिर होकर सुनो ॥२०४।। १२ विविध जीव-योनियोंका वर्णन इन योनियोंका वर्णन तो नियमतः जिनाधिप ही करते हैं। (उनके कथनानुसार) शंखावतं योनिमें गर्भ नहीं ठहरता, (यदि ठहरता भी है तो वह नष्ट हो जाता है) । कूर्मोन्नत नामक द्वितीय योनिमें जिनाधिप तथा बलभद्र, राम और चक्रवर्ती दोनों ही जन्म लेते हैं। शेष जीव दुखों की भमि रूप वंशपत्रयोनिमें जन्म लेते हैं। (जन्मोंका वर्णन )-जिनराजने गर्भ, उपपाद और सम्मूर्च्छनके भेदसे ३ प्रकारके जन्म बतलाये हैं। इन तीनों जन्मोंकी संक्षेपमें (१) सचित्त, ५ (२) अचित्त (३) विमिश्रित-सचित्ताचित्त, (४) शीत, (५) उष्ण, (६) शीतोष्ण, (७) संवृत (८) विवृत और (९) संवृत-विवृत नामक ९ गुण-योनियाँ कही गयी हैं। पोतज, जरायुज और अण्डज नामक संसारी जीवों का गर्भ जन्म होता है। देवों और नारकियों का उपपाद जन्म होता है । पुनः शेष जीवोंका स्पष्ट ही सम्मूर्छन जन्म होता है। उपपाद जन्मकी अचित्त योनि कही गयी है तथा गर्भ जन्मको मिश्र-सचित्ताचित्त योनि। १० हे शतमख, सम्मूछेन जीवोंकी सचित्त, अचित्त व मिश्र-सचित्ताचित्त योनि होती है। उपपाद जन्मको शीतोष्ण योनि कही गयी है, इसी प्रकार अग्निकायिक जीवोंकी उष्णयोनि समझना चाहिए। शेष जन्मों-जीवोंकी शीत एवं उष्ण योनि होती है ऐसा जिनवरों द्वारा जानकर प्रकट किया गया है तथा उनके (पूर्वोक्त जीवोंकी) भव्यजनोंको आनन्दित करनेवाली मिश्रयोनि भी जिनेन्द्रने कही है। एकेन्द्रिय जीव तथा उपपाद जन्मवालोंकी संवृत योनि होती है इसे जानकर अपनी भ्रान्ति दूर करो। विकलत्रयोंकी विवृत योनि होती है। राग करनेवाले गर्भ-जन्म वालोंकी संवृत एवं विवृत योनियाँ होती हैं । विकल सम्मूर्छन जड़ और दुर्लक्ष्य पंचेन्द्रिय जीवों की विवृत योनि होती है। इस प्रकार सामान्यतः ९ गुणयोनियां कही गयी हैं। विस्तारसे उनकी संख्या ८४ लाख है। द्वीन्द्रिय जीवोंकी उत्कृष्ट आयु १२ वर्षकी तथा त्रीन्द्रिय जीवोंकी ४९ अहोरात्रकी उत्कृष्ट २० आयु होती है। १५ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001718
Book TitleVaddhmanchariu
Original Sutra AuthorVibuha Sirihar
AuthorRajaram Jain
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1975
Total Pages462
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Story, Literature, & Religion
File Size9 MB
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