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________________ 20 5 10 15 10 २४० agमाणचरिउ घत्ता—छम्मासाउसु’चउरिंदियाँ पंचेंदिर्याहि विदिट्ठी । कम्मावणि भूयर अणिमिसहिँ पुग्व कोडि उवविट्ठी ॥ २०५ ॥ ॥ दुगुणिये-एकवीस - सहसद्दइँ ताइँ जिणेंदें भाव - णिवारिय कत्थवि खेत्तावेक्खइँ तिरियहँ भणिय तीने पलिओवम एहउ माया तुळे कुपत्तहँ दा एए उपज्जहिं इह तिरिय हूँ - दुगुणि-पणारह तिरिय लोउ लच्छी अवजाढउ तिगुणियँ पण दह लक्ख पमाणउ मह जोयण सय सह से परिमिउँ जोयण पंचसयइँ छब्बीसइँ राव पुणु एण पयारें उत्तर- दाहिण दिस परिट्ठिय हिमवंत वित्थारु समासिउ बारह कल सउ जोयण जाणहिँ वंत खेत्तो पंचाहिय होइ हिरण्णवत् पुणु एत्तिउ च-सहास दो सय दह दह कल रुम्मि गिरिंदु वि एत्तिउ लक्खिउ एक्कवीस जुय चउरासी सय हरिवरसहो रम्मयहो वियाणहिं वेकल वेयाहिय चालीस इँ णिसुढो एउ उत्तु पहुत्तणु fot उ माणु भासिव्वउ पित्तणु देवेण विदेह हो चउकल चउरासी छ संयाहिय Jain Education International घत्ता - जोयण पंचास जि वित्थर हूँ भणिउँ ताहँ पिहुलत्तणु । णि मणि जाहिं दह सय-गयण पंचवीस उच्च त्तणु ॥ २०६ ॥ १३ उर जियंति गईंद विमद्द हूँ । वाहत्तर हरहँ समीरिय । पंचेंदियहँ सकम्मा वरियहँ । उत्तमा महूँ भासिउ जेहउ । अट्ठ-झाण-वस मरि अण्णाणें । कहियइँ एवहिं पभणमि मणुवहूँ । अवरवि पुणु छण्णव वियारहूँ । मणुसोत्तर - महिहर-परिवेढिउ । जंवुदी तहिं दीव राणउँ । भरवरि तह दाहिण - दिसि ठिउ । वित्रेण छकला परिमीस हूँ । जाणि किं बहु वित्थालेँ । विजयायल रुप्पमय अणिट्ठिय । [ १०. १२. १९ १३. १. D.ळण ं । २. D. ३. D. । ४. J. V. जिय । १४. १. D. हुई° । २. D. उ । ३. D. छयाहिय । ४. D. ह । १४ एक्कु सहसु वावण्ण-विभीसिउ । उच्च सिहरिवि वक्खाणहिं । एकवीस सय कलपण साहिय । णिसुणि महाहिमवंत हो जेत्तिउ । दो सय मुणि उच्चत् णिक्कल । जिणणाहेण ण भव्वहँ रक्खि । एक कलाहिय गणिय समागय । एत्तिउ यि मणि अणुहरे आणहिँ । अस दुगुणिय वसुसहमहूँ । चारि सयाइँ तहय उच्चत्तणु । पुच्छंत हो संसउ णिहणेव्वड । भासि मण चिंतिय सुहणेह हो । सहसेयारहँ* तिगुणिय साहिय । For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001718
Book TitleVaddhmanchariu
Original Sutra AuthorVibuha Sirihar
AuthorRajaram Jain
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1975
Total Pages462
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Story, Literature, & Religion
File Size9 MB
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