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________________ १०.११.४] हिन्दी अनुवाद २३७ १० समुद्री जलचरों एवं अन्य जीवोंको शारीरिक स्थिति लवण समुद्र और काल समुद्रमें जलक्रीड़ाके विलासमें लीन ( बड़े-बड़े ) मस्त्य निवास करते हैं। जिन ( महामत्स्यों ) के कारण ( समुद्रका ) महान् तरंगोंसे रौद्ररूप रहता है, वही स्वयम्भूरमण समुद्र है ( अर्थात् उसमें भी महामत्स्य निवास करते हैं )। शेष समुद्रोंमें महामत्स्य निवास नहीं करते। हे सुरेन्द्र, मैंने अपने आकाशके समान विशाल ज्ञानसें इसका ( साक्षात् ) निरीक्षण किया है। लवण समुद्रके अन्तमें १८ योजन शरीरवाले तिमि नामक मत्स्य होते हैं। लवण समुद्रके ही तटवर्ती मुखोंमें तीन रहित बारह अर्थात् नौ योजन प्रमाण शरीरवाले तिमि मत्स्य होते हैं। कालार्णवमें छत्तीस योजन प्रमाणवाले तथा कालार्णवके ही नदीमुखोंमें अठारह योजन शरीर प्रमाणवाले तथा समुद्री-क्रीड़ाओंमें रत रहनेवाले मत्स्य होते हैं। अन्तिम समुद्र में वे ही अनिमिष महामत्स्य पाँच सौ योजन प्रमाणवाले होते हैं, जो दिशाओंको भी ढंक देते हैं। वहाँ थलचर और नभचर तिर्यंच भी होते हैं, जिनमें (परस्परमें ) स्नेह-वर्धन होता रहता है। वे दोनों ही तिर्यंच सम्मूर्च्छन जन्म व गर्भ-जन्मसे उत्पन्न देहवाले होते हैं। अनिन्द्य मुनियों द्वारा कभी-कभी उनमें व्रतकी भावना भी जागृत कर दी जाती है ( अर्थात् वे व्रतधारी भी हो सकते हैं ) इस प्रकारके शरीरका प्रमाण मुनीन्द्रों द्वारा कहा गया है। जलचर महामत्स्य पर्याप्त सम्मूर्छन जन्मवाला ही होता है तथा उसका शरीर एक सहस्र १५ योजन प्रमाण होता है । ऐसा किसीने स्पष्ट ही कहा है। जो जलजर जीव गर्भ, जन्म द्वारा उत्पन्न होते हैं उन्हें पाँच सौ योजन प्रमाण कहा गया है। यह केवलज्ञान द्वारा देखा गया है। इन्हीं पर्याप्ति कर्मरहित तीनों प्रकारके सम्मूर्छन शरीरोंका विस्तारगत-साधन ( अतीन्द्रियज्ञानवाले ) अरहन्त देवोंने कहा है । मनुष्यको वितस्ति प्रमाण इनको उत्कृष्ट अवगाहना है । गर्भसे उत्पन्न थलचर जीवोंके शरीरका उत्कृष्ट प्रमाण तीन कोश है, ऐसा जिनेन्द्रने कहा है। हे दशशत लोचन-इन्द्र, अपने मनमें यह समझ लो कि सूक्ष्मबादर जीवोंकी जघन्य अवगाहना अंगुलके असंख्यातवें भाग बराबर होती है। यह मैंने ( स्वयं अपने ) पंचमज्ञान ( केवलज्ञान ) से जाना है। २५ पत्ता-सूक्ष्म निगोद अपर्याप्तक जीवोंकी तथा सम्मूर्छन जन्मवाले जलचर जीवोंकी देहका जघन्य एवं उत्कृष्ट प्रमाण अपने मनकी भ्रान्ति छोड़कर सुनो ।।२०३॥ २० ११ जीवको विविध इन्द्रियों और योनियोंका भेद-वर्णन पुनरपि वीरप्रभु इन्द्रके मनके मोहको दूर करते हैं तथा संक्षेपमें इन्द्रियोंके भेदोंका कथन करते हैं। संज्ञी पर्याप्तक जीव श्रुति प्राप्त शब्दोंको स्पृष्ट रूपसे सुनता हैं ( इसी प्रकार ) एकेन्द्रिय ( स्पर्शन ), द्वीन्द्रिय ( रसना ), त्रीन्द्रिय (घ्राण), स्पृष्ट और अस्पृष्ट रूपसे जानती हैं, ऐसा जिननाथने घोषित किया है । चक्षुरिन्द्रिय अपरिमृष्ट ( बिना स्पर्श किये हुए ) रूपको देखती है। ५ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001718
Book TitleVaddhmanchariu
Original Sutra AuthorVibuha Sirihar
AuthorRajaram Jain
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1975
Total Pages462
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Story, Literature, & Religion
File Size9 MB
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