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________________ १०. ६. १४] हिन्दी अनुवाद २३१ इसी प्रकार संज्ञीजीव मन पर्याप्ति सहित ६ पर्याप्तियोंको धारण करते हैं। वे शिक्षा, भावरचना अर्थात् संकेत आदिको समझ लेते हैं। जिनके उक्त पर्याप्तियाँ (पूर्ण) नहीं होतीं, वे अपर्याप्त कहलाते हैं। जो मरणकालपर्यन्त २० अपर्याप्तक ही रहते हैं, वे लब्ध्य पर्याप्तक हैं, इनकी संख्या अगणित है ( अथवा-देव भी अपर्याप्तक होते हैं, किन्तु उनकी गणना यहाँ नहीं की गयी ?)। ____घत्ता-जिन जीवोंकी पर्याप्ति अभी तक पूर्ण नहीं हुई है, किन्तु अन्तर्मुहूर्तके बाद हो जायेगी, संसारमें वे सभी जीव नित्यपर्याप्तक कहलाते हैं। ये अनुपम अरहन्तोंके ही वचन हैं। ( मेरे अपने नहीं ) ।।१९८|| २५ जीवोंके शरीर-भेद मनुष्यों और तिर्यंचोंके औदारिक शरीर तथा देवों और नारकियोंके वैक्रियक शरीर होता है। किसी-किसी मुनीन्द्रके आहारक शरीर भी होता है। समस्त जीवोंके तैजस और कार्मण शरीर होते हैं। तिथंच जीव दो प्रकारके होते हैं-(१) स्थावर और (२) त्रस । ( इनमें से ) स्थावर-जीव पाँच प्रकारके होते हैं, जो सभी तामस भाववाले होते हैं वे (-इस प्रकार ) हैं-(१) पृथिवीकायिक, (२) अप्कायिक, (३) तेजकायिक, (४) वायुकायिक और (५) हरितकायिक स्थावर जीव, यह मेरा अपना कथन नहीं है ( अर्थात् यह जिनभाषित है जो यथार्थ है)। पृथिवीकायिकके जीवोंका आकार मसूरके बराबर होता है, ऐसा निस्पृह मुनीश्वरोंने कहा है। सन्ताप निवारण करनेवाले जलकायिक जीव कुशाके जलांशकी लीलाश्रीको धारण करनेवाले होते हैं। ( अर्थात् जलकायिक जीवोंका आकार जल-बिन्दुके समान होता है ) । हे . पुरन्दर, अग्निकायिक जीवोंका शरीर धन-सूची-कलापके समान सुन्दर जानो ( अर्थात् खड़ी हुई । सुईके समान अग्निकायिक जीव होते हैं ) । वायुकायिक जीवोंके शरीरका आकार नष्ट हुए शरीरके समान अथवा वायु-प्रकम्पित ध्वजा-पताकाके समान जानो। पाँच भरत, पाँच ऐरावत और पाँच विदेह इस प्रकार ( कुल ) १५ कर्मभूमियोंके क्षेत्र हैं, जो नदी, सरोवर, सागर और सुरधर ( सुमेरु ) से सुशोभित हैं। वे वैताढय गिरि, वृक्ष, तोरण, वर्ष, वर्षधर वेदिकाओंसे सुशोभित तथा अरहन्तोंके चरणोंके गन्धोदकसे पवित्र हैं। जहाँ गगनांगण १५ पंक्तियाँ सुशोभित हैं तथा देव-विमानोंमें गणेश तथा इन्द्र परिस्थित ( विचरण करते ) रहते हैं। इस प्रकार ( हे इन्द्र ) मैंने तुम्हें जीव भेद-प्रभेद आदि तो दर्शाये, किन्तु अभी उनके निवास-क्रम नहीं बताये हैं। पत्ता-खर, बालुका आदि ( नरक-) पृथिवियाँ निरन्तर जल प्रवाहोंसे भी नहीं भेदी जा सकतीं। किन्तु स्नेह-सिंचनसे यह प्राणी बन्धनको प्राप्त हो जाता है, ऐसा वीतराग जिन द्वारा कहा गया है ।।१९९॥ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001718
Book TitleVaddhmanchariu
Original Sutra AuthorVibuha Sirihar
AuthorRajaram Jain
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1975
Total Pages462
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Story, Literature, & Religion
File Size9 MB
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