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________________ १०. ५.१०] हिन्दी अनुवाद २२९ मुनीन्द्रोंने विकलेन्द्रियोंकी २-२ लाख योनियाँ उपलक्षित की हैं। नारकियों, देवों और पंचेन्द्रिय तिर्यंचोंकी ४-४ लाख योनियां होती हैं, इसमें कोई भ्रान्ति नहीं। प्रत्येक वनस्पतिकी जिस प्रकार १० लाख योनियाँ होती हैं, उसी प्रकार मनुष्योंकी १४ लाख । इस प्रकार कुल ८४ लाख योनियां होती हैं, वे सभी मिलकर दुखको क्षोणी-भूमि हैं। __जड़जनों द्वारा दुर्लक्ष्य पृथिवीकायिक, जीवोंके २२ लाख कुलकोटि हैं। जलकायिक जीवोंके १० ७ लाख कुलकोटि, अग्निकायिक जीवोंके ३ लाख कुलकोटि एवं वायुकायिक जीवोंके ७ लाख कुलकोटि और वनस्पतिकायिक जीवोंके २८ लाख कोटिकुल हैं ऐसा जिनवरों द्वारा कथन आगमोंमें विख्यात है। विकलेन्द्रियोंके क्रमशः ७, ८ और ९ लाख कोटि कुल कहे गये हैं। इस कथनसे ( अपनी) भ्रान्तिका निवारण कर लीजिए। __ पंचेन्द्रिय अमनस्क जलचर तियंचोंके आधा मिलाकर १२ लाख ( अर्थात् साढ़े बारह लाख) १५ कुल कोटि हैं। पंचेन्द्रिय नभचर पक्षी तिर्यंचोंके १२ लाख कुल कोटि और पंचेन्द्रिय स्थलचर चतुष्पद तिर्यंच जीवोंके १० लाख कुल कोटि हैं । उरपरिसंसरण करनेवाले ( सर्प आदि ) पंचेन्द्रिय तियंचोंके ९ लाख कुल कोटि हैं। जिस प्रकार नारकी जीवोंके २५ लाख कुल कोटि हैं उसी प्रकार मनुष्योंके १४ लाख कुल कोटि तथा देवोंके २६ लाख कुल कोटि हैं। ___घत्ता-पूर्व उत्तरके सब कुलोंकी संख्या मिलाकर एक कोडाकोडी, ९९ लाख ५० हजार २० कोटि है । अर्थात् सम्पूर्ण कुलोंकी संख्या १ कोडी ९९ लाख ५० हजारको १ कोटिसे गुना करनेपर जितना लब्ध आये उतनी अर्थात् १९७५०००००००००० कुल संख्या है। जीवोंके भेद, उनकी पर्याप्तियां और आयु-स्थिति दुखोंसे पीड़ित वे समस्त संसारी जीव परस्परमें रागरंजित होकर संसारमें भटकते हुए जन्मते-मरते रहते हैं । पृथिवीकायिक, जलकायिक, अग्निकायिक, वायुकायिक और वनस्पतिकायिक रूप पाँच प्रकारके स्थावर एकेन्द्रिय जीव होते हैं। अनेक बार द्वीन्द्रिय, त्रीन्द्रिय तथा चतुरिन्द्रियरूप विकलेन्द्रिय जीव हुए और इसी प्रकार अनेक बार पंचेन्द्रिय जीवके रूपमें जन्म लेते और मरते रहते हैं। ___ मन, वचन, काय, कृत, करण-चेष्टा और आहार वर्गणासे अपने खल रसभाग रूपादि गुणको विस्तारनेवाले परमाणुओंकी निवर्तनाकरण रूप जो अनिवार्य कारण है, वह स्पष्ट ही पर्याप्ति ( कही गयी ) है। जिननाथने उसे ६ प्रकारका बताया है और मन्द मतियोंके संशयको दूर किया है । यह मनुष्य व तिर्यंच जीव अपने हृदयमें अपने ही हितका विचार न करता हुआ अधम पर्यायोंमें भिन्न-जघन्य मुहूतं आयु पर्यन्त ठहरता है। जिस प्रकार नरक निवासमें १० सहस्र १० वर्षकी जघन्य आयु है, उसी प्रकार स्वर्ग-निवासमें भी जघन्य आयु १० सहस्र वर्षकी है। इन्हीं में उत्कृष्ट आयुका प्रमाण ३३ सागर जानो। मनुष्य व तियंचोंकी उत्कृष्ट आयु ३ पल्यकी सुनी गयी है। __ एकेन्द्रिय जीवकी आहार, शरीर, इन्द्रिय और श्वासोच्छ्वास नामक ४ पर्याप्तियाँ तथा विकलेन्द्रियोंकी आहार, शरीर, इन्द्रिय, श्वासोच्छ्वास और भाषा नामक ५ पर्याप्तियाँ कही गयी १५ हैं। ये ही पर्याप्तियाँ असंज्ञी व पंचेन्द्रियोंकी भी कही गयी हैं। ऐसा ज्ञानवन्त मुनिवर विचार किया करते हैं। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001718
Book TitleVaddhmanchariu
Original Sutra AuthorVibuha Sirihar
AuthorRajaram Jain
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1975
Total Pages462
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Story, Literature, & Religion
File Size9 MB
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