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________________ सन्धी १० भगवान्की दिव्यध्वनि झेलनेके लिए गणधरको खोज । इन्द्र अपना वेश बदलकर गौतमके यहां पहुंचता है उन वीर प्रभुको दायों ओर गुण-विराजित गणधर ( और मुनि ) स्थित थे। उनके बाद सुपुष्ट, कठोर, मोटे एवं ऊँचे उठे हुए स्तनोंवाली कल्पवासिनी देवांगनाएँ बैठी थीं। उनके बाद अन्य महिलाओंके साथ आर्यिकाएँ फिर (क्रमशः ) ज्योतिषी, व्यन्तर एवं भवनवासी देवोंकी देवियाँ विराजमान थीं। ( उनके बाद ) भवनवासी, व्यन्तर एवं ज्योतिषी देव . और कमनीय ( अत्यन्त सुन्दर ) कल्पवासी देव । उनके बाद मनुष्य तथा पृथिवीपर तिर्यंच स्थित , थे। इस प्रकार (१२ सभाओंमें ) १२ प्रकारके गण ( वहाँ) उपविष्ट थे। भामण्डलकी द्युतिसे सूर्यको भी जीत लेनेवाले जिनेश्वर सिंहासनपर बैठे हुए सुशोभित हो रहे थे। उनके दोनों ओर चमर दुराये जा रहे थे। मनुष्य और देव-समूह जय-जयकार कर रहे थे। (भगवान्के सिरके ऊपर लटकते हुए) तीनों छत्रोंमें लगी किंकिणियोंके शब्द, मानो भव्यजनोंके लिए महावीरके त्रिजगत् सम्बन्धी प्रभुपनेको घोषित कर रहे थे। गम्भीर ध्वनिवाले दुन्दुभि-बाजे बज रहे थे, ऐसा प्रतीत होता था मानो हर्षसे समुद्र ही गरज रहा हो। नभस्तलसे १० समस्त दिशा-मुखोंको सुवासित करनेवाली तथा शिलीमुख-भ्रमरों सहित पुष्पवृष्टि हो रही थी। शाखा-प्रशाखाओंसे मण्डित तथा रक्ताभ गुच्छोंकी शोभासे सम्पन्न अशोक-वृक्ष शोभायमान था। (किन्तु ) उस समय जिननाथको मिथ्यात्व एवं मार-कामनाशक दिव्यध्वनि नहीं खिर रही थी - घत्ता-तब मुकुट-मणियोंसे स्फुरायमान इन्द्रने अपने अवधिज्ञानसे ( उसका कारण ) जाना १५ और ( विक्रिया ऋद्धिसे ) गणितानन-गणितज्ञ-दैवज्ञ-ब्राह्मणका वेष बनाकर वह तुरन्त ही गौतमके पास पहुँचा ।।१९४।। गौतम ऋषिने महावीरका शिष्यत्व स्वीकार किया तथा वही उनके प्रथम गणधर बने। उन्होंने तत्काल ही द्वादशांग श्रुतिपदोंकी रचना की सुमेरु पर्वतपर जिनेन्द्रका न्हवन करनेवाले तथा विप्रवटुकके वेषधारी उस सुरेन्द्रने गौतम गोत्ररूपी नभांगणके लिए चन्द्रमाके समान तथा गुण-समूहके निवासस्थल उस इन्द्रभूति गौतमको देखा तथा उसे वह स्वयं ही ले आया, जहाँ कि स्वामी-जिन विराजमान थे। दूरसे ही मानस्तम्भ देखकर उस ( गौतम ) का मान-अहंकार उसी प्रकार नष्ट हो गया, जिस प्रकार कि सूर्यके सम्मुख अन्धकार-समूह नष्ट हो जाता है। उस गौतमने निरहंकार भावसे नतशिर होकर पृथिवीमण्डलपर असाधारण उन परमेश्वरसे जीव-स्थितिपर प्रश्न किया. जिसका उत्तर परमानन्द जिनेश्वरने स्पष्ट किया। उस उत्पन्न दिव्यध्वनिको उस गौतमने समझ लिया, जिससे उस (गौतम) Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001718
Book TitleVaddhmanchariu
Original Sutra AuthorVibuha Sirihar
AuthorRajaram Jain
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1975
Total Pages462
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Story, Literature, & Religion
File Size9 MB
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